क्या नास्तिक मानवीय मूल्य और नैतिकता से विहीन होते हैं?

नास्तिकों को लेकर प्रत्येक संस्कृति, देश तथा व्यक्ति में उनके बारे में अलग अलग समझ और राय है। कहीं नास्तिक होना अपराध है, तो कहीं नास्तिक होना आधुनिक; कहीं नास्तिक होने का अर्थ मानवीय मूल्य विहीन होना है, तो कहीं पाप। नास्तिकों की परिभाषा भी लोगों और संस्कृति के हिसाब से अलग अलग है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या नास्तिक मानवीय मूल्य और नैतिकता से विहीन होते हैं? इसका उतर जानने के पहले लोगों में नास्तिकों की क्या राय है, उसपर एक अध्ययन के हवाले से बात करते हैं। 


तस्वीर प्रतीकात्मक I MARRIED AN ANGEL से साभार 

नेचर ह्युमन बिहैवियर’ पत्रिका के अगस्त, 2017 के अंक में छपे अध्ययन के अनुसार, दुनिया भर में धार्मिक आस्था को अनैतिक आचरणों के प्रति प्रलोभन के खिलाफ एक सुरक्षा समझा जाता है। यह पता चला कि नास्तिकों को व्यापक रूप से नैतिक रूप से वंचित और खतरनाक माना जाता है।

यहाँ तक कि उन्हें सीरिअल हत्यारों के प्रतिनिधि के तौर पर भी देखा गया। यह सर्वे 13 देशों में किया गया था, जिसमें इंग्लैंड, फ़िनलैंड चीन, न्यूजीलैंड, अमेरिका आदि के अतिरिक्त भारत भी था। यह धारणा हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, बौद्ध आदि सभी धर्मों में देखा गया। यह भी चौंकाने वाला था कि कई नास्तिक भी ऐसा सोचते हैं। सिर्फ दो ऐसे सेक्युलर देश न्यूजीलैंड और फ़िनलैंड के प्रतिभागियों में ऐसा पूर्वाग्रह नहीं देखा गया।

ऐसे लोग जो अंधविश्वास के विरोध में और तर्कशीलता के पक्ष में बात करते हैं, उनको धार्मिक आस्था रखने वाले लोग सामाजिक रूप से एक खतरा समझते हैं। भारत में ऐसे लोगों की हत्या तक कर दी गयी है। कलबुर्गी, नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे और गौरी लंकेश जैसे लोगों कि हत्या इसलिए कर दी गयी। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ भारत में है, बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी ऐसा ही देखने को मिलता है।
मशहूर पत्रकार बरखा दत्त इसपर कहती हैं, ''भारत में हम राम रहीम जैसे फ़र्जी लोगों के सामने सिर झुकाते हैं और तर्कशील लोगों की हत्या करते हैं।''
उपरोक्त बातों से दो चीज साफ़ हो जाती है। पहला कि नास्तिकों को धर्म में आस्था रखने वाले लोग अनैतिक और समाज के लिए खतरनाक मानते हैं; दूसरा धार्मिक संकीर्णता में डूबे लोग नास्तिकों पर हिंसा और हत्या करने से भी परहेज नहीं करते।

अब सवाल उठता है कि नैतिकता क्या है? इसका उत्तर है, नैतिकता मानव के आपसी संबंधों तथा अस्तित्व को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बनाया गया सामाजिक-सांस्कृतिक नियंत्रण प्रणाली है। चूँकि इंसान स्वार्थी और हिंसक भी रहा है, इसलिए उन कृत्रिम प्रणाली को बिना किसी कारण के नहीं मान सकता। फिर इन्सान और जानवर में अंतर होना मुश्किल था। 
ऐसे में किसी ईश्वर, किसी धर्म अथवा मानवता की चिंता से जोड़कर, उस कारण का उत्तर देना संभव है। हम यह भी देखते हैं कि शेर शेर को नहीं खाता, हाथियों में भी सामाजिकता होती है, पेंगुइन अपने साथी के बिना नहीं जी सकता। यह सब उदहारण यह बात समझने के लिए कि ज्यादातर जीवों में, अपनी प्रजाति को लेकर सकारात्मक और भावनात्मक मूल्य पाए जाते हैं।  
ब आते हैं धर्म पर। हम देखते हैं, सभ्यता के इतिहास में कई धर्म ईश्वर का डर और अपनी ईच्छाओं की पूर्ति का माध्यम होने से अधिक कुछ नहीं था। हम इस्लाम और हिन्दू धर्म में देखें किस प्रकार ईश्वर और अल्लाह के भय से बचने के लिए तथा जीवन और मरने के बाद के परिणाम के भय व लालच के अधीन पूजा, मन्नत, इबादत आदि किये जाते हैं। ऐसा नहीं करना पाप से जोड़ा गया है, तथा जीवन ही नहीं मृत्यु के बाद भी उससे प्रभावित होने की बात धर्म-ग्रंथों में कही गयी है। 
मानो ईश्वर कोई जेलर हो। उसके हिसाब से काम करो, तो सजा कम करवा देता है, नहीं करो तो सजा को और भी कठोर कर देता है। ईसाईयत भी ऐसा ही मानती है।
अब सवाल उठता है कि इन्सान को नैतिक होने के लिए धार्मिक आस्था का पालन करना क्यों ज़रूरी है? अब कुछ उदाहरण देखें। भारत में गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर, ऐसे दो प्रमुख व्यक्ति हुए हैं, जो ईश्वर की सत्ता में यकीन नहीं करते थे। वह भी आज से 2500 साल पहले। बुद्ध तो आत्मा तक में यकीन नहीं करते थे। क्या उन्हें तथा बौद्ध मत को मानने वाले लोगों को अनैतिक कहा जा सकता है? कहते हैं, बुद्ध ने अपने समय में लगभग 45 वर्षों तक अपने ज्ञान का प्रचार किया और सम्पूर्ण उत्तर भारत पर उनका प्रभाव हो गया। उनके अनुनाईयों में, बड़ी संख्या में ब्राह्मण भी थे, जो ईश्वर, यज्ञ और मनुष्य के दैवीय उत्पति में पूर्व में यकीन करते थे।
बुद्ध ने अपनी दी गयी शिक्षा को दुःख से मुक्ति पाने का मार्ग बताया। इसे न ही स्वर्ग-नरक से जोड़ा और न ही ईश्वर तथा आत्मा से। उनकी शिक्षा को उन्होंने धम्म कहा, जिसका अर्थ था – मन की शुद्धता, प्राकृतिक नियम, कर्त्तव्य आदि। उनका धम्म बहुतों का कल्याण और दुखों से मुक्ति का मार्ग था। यदि बुद्ध के कार्यों और उनकी शिक्षाओं को आप नैतिक मानते हैं, तो यह कहा जा सकता है कि बिना ईश्वर, बिना आत्मा, बिना स्वर्ग-नरक का भय, बिना आडम्बर आदि के भी नैतिकता संभव है।
इसी प्रकार हम देखते हैं, भारत में ही ई.वी. रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले आदि जैसे लोग हुए हैं, जिन्होंने अंधविश्वास के खिलाफ, महिलाओं के अधिकारों के लिए, जातिप्रथा उन्मूलन के लिए तथा इसतरह के दुसरे कार्यों के लिए जाने जाते हैं। शहीद भगत सिंह जैसे देशभक्त तथा स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले लोग हुए हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है, कि ये सभी ईश्वर और दैवीय सत्ता में विश्वास नहीं करते थे। लेकिन मानवता और देश के हितों की चिंता उन्हें किसी पुरोहित अथवा बाबा से ज्यादा रही।
हम आज भी आशाराम बापू, राम रहीम आदि के उदहारण देख सकते हैं। जो भजन, भक्ति आदि में रमे दिखते थे। लेकिन उनके चरित्र पर आप क्या कहेंगे? 
ऐसे लोग मुस्लिम, ईसाई आदि सभी धर्मों में हैं। अब आप बताईये कि नैतिक होना या न होना, क्या धर्म और ईश्वर को मानने या न मानने से तय होना ठीक प्रतीत होता है? क्या धर्म को मानने वाला अच्छा होगा, इसकी क्या गारंटी है? धर्म-ईश्वर को नहीं मानने वाला चरित्रहीन और अनैतिक होगा, क्या आप ऐसा कह सकते हैं? 



इससे बेहतर यह नहीं होता कि हम किसी व्यक्ति के नैतिक होने अथवा नहीं होने में, उसके आचरण को पैमाना बनायें? नैतिक होने के पैमाने को इंसानियत, देश-समाज और दुनिया के प्रति उसके कर्तव्यों से जोड़कर क्यों नहीं देखते? एक व्यक्ति को उसके धर्म-ईश्वर में यकीन है अथवा नहीं, कि जगह उसके कर्मों के आधार पर हम क्यों नहीं जांचते?
मुझे लगता है, ऊपर कही गई बातों के आधार पर, अब आप अपने सवाल का जवाब अपने विवेक से  ढूंढ पाने में सक्षम होंगे।
क्या ऐसा कहना ठीक होगा कि एक व्यक्ति की नैतिकता उसके ऐसे कार्यों से जाहिर होते हैं, जो मानवता के लिहाज से उपयोगी हैं। नैतिकता का, किसी ईश्वर अथवा धर्म से उतना सरोकार नहीं है, जितनी व्यक्ति के चरित्रवान और मानवीय गुणों से युक्त होने में।

 शेषनाथ वर्णवाल
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