भारतीय
संविधान भारतीय गणराज्य को धर्मनिरपेक्ष और पंथनिरपेक्ष होने की बात करता है।
सविधान की रक्षा करना व उसमें वर्णित बातों को मानना सभी नागरिकों व संस्थाओं का
नैतिक कर्तव्य है। भारत में सरकारी स्कूल से ज्यादा निजी स्कूल संचालित होते हैं।
अक्सर ये देखा गया है स्कूल का संचालक जिस धर्म या संप्रदाय का फालोवर होता है वह
अपने स्कूल में उस धर्म से संबधित क्रियाकलापों को ज्यादा बढ़ावा देता है। विश्वभर में
शिक्षा पर धर्म का नियंत्रण बढ़ रहा है। हर जगह धार्मिक शिक्षा का बोलबाला है।
कहने को लोकतांत्रिक सरकारें शिक्षा को धर्म से मुक्त रखने की बातें करती रही हैं पर
परोक्ष-अपरोक्ष रूप में धार्मिक शिक्षा की घुसपैठ कराई जा रही है।
जर्मन
तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने कहा था, ‘‘मुझे टैक्स्टबुक्स पर नियंत्रण करने दो, और मैं जर्मनी
को कब्जे में कर लूंगा।’’ (लेट मी कंट्रोल द टैक्स्टबुक्स ऐंड
आई विल कंट्रोल जर्मनी) धर्म, तानाशाही चाहता है और शिक्षा में
‘धर्म की अफीम’ का नशा किसी भी समाज पर नियंत्रण करने का सबसे कारगर हथियार है।
किसी भी देश में धर्म अथवा धार्मिक
शिक्षा व्यक्तिगत चुनाव (पसंद) का विषय होना चाहिए और हमें बच्चों को अपना स्वतंत्र
निर्णय लेने का यह अधिकार प्रदान करना चाहिए, भले
ही कुछ कट्टर धार्मिक आस्थाओं वाले अभिभावक अथवा बच्चे यह बात स्वीकार न करें। इस दृष्टिकोण
से विचार करने पर मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि क्यों आज भी बहुत से भारतीय
स्कूलों में ‘धर्म’ स्कूलों में पढ़ाया जाने
वाला विषय बना हुआ है।
भारत के बाहर की बात करें तो बहुत
से यूरोपीय देशों में सरकारी स्कूलों में ईसाई धर्म पढ़ाने की कक्षाएं होती हैं। अमरीका
में अभिभावक अपने बच्चों को हर रविवार अपने पसंदीदा धार्मिक स्कूलों में भेजते हैं
और कई मुस्लिम देशों में तो हर विषय के साथ बच्चों को इस्लाम पढ़ाया जाता है। हालाँकि
कुछ स्तर पर भारत में एक विषय के रूप में 'धर्म'
नहीं पढ़ाया जाता मगर हिन्दू धार्मिक कथाएँ बच्चों की किताबों और कक्षाओं
में अक्सर प्रवेश पा जाती हैं। अधिकतर देशों में कुछ निजी स्कूल एक विशेष धर्म द्वारा
चलाए जाते हैं, जहाँ अभिभावक अपने बच्चों को इसलिए भेजते हैं
कि वे चाहते हैं कि उनके बच्चों की परवरिश एक खास धार्मिक माहौल में हो।
भारत
में इस समय देखें तो आज कई धर्म विशेष के नाम पर विद्यालय और विश्वविद्यालय खुले
हुए हैं। जो स्कूल या विश्वविद्यालय धर्म विशेष के नाम पर नहीं खुले हुए हैं आज
उनका भी हिंदुत्विकरण हो रहा है। किसी भी कार्यक्रम में, एक खास देवी या देवता के
माल्यार्पण से प्रारम्भ करने का कल्चर बढ़ रहा है।
मेरा
प्रश्न यह है कि आखिर इस शिक्षा से बच्चे क्या प्राप्त करते है?
उनके जीवन में यह शिक्षा किस तरह उपयोगी है? फिर
उन विषयों पर उन्हें नम्बर दिए जाते हैं, जिससे वे उन्हें बहुत
महत्वपूर्ण मानने लगते हैं। यह तो सिर्फ धर्मग्रंथों को रटना और उनका अभ्यास करना हुआ
और क्या आप उसकी स्मरणशक्ति की जाँच करने हेतु यह शिक्षा दे रहे हैं? या आप इस बात पर उन्हें नंबर देते हैं कि वे कितने धार्मिक हैं?
भारत के संविधान में धारा 28 (1) के
अंतर्गत स्पष्ट शब्दों में इसकी व्याख्या की गई है। इसके मुताबिक- ‘किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा को ऐसी किसी शैक्षिक संस्थान में नहीं दिया
जाएगा जो राज्य के फंड से संचालित होता हो, जब तक ‘उन्हें ऐसे किसी एन्डोमेण्ट या ट्रस्ट के तहत स्थापित न किया गया हो जिसमें
धार्मिक शिक्षा अनिवार्य बनायी गयी हो।’
इस मामले में धारा 28 अधिक स्पष्ट है और वह
इसके अमल को लेकर कोई अस्पष्टता नहीं छोड़ती है- ‘कोई भी ऐसा व्यक्ति जो राज्य द्वारा मान्यता-प्राप्त किसी शैक्षिक संस्थान
से जुड़ा हो या जिसे राज्य से वित्तीय सहायता मिलती हो, उसे किसी भी किस्म की धार्मिक
शिक्षा में शामिल होने की आवश्यकता नहीं होगी, जो इस संस्था में
दी जा रही हो या ऐसी किसी धार्मिक पूजा में उपस्थित होने की अनिवार्यता होगी जो ऐसी
संस्था में की जा रही हो या संस्थान से जुड़े परिसर में की जा रही हो या अगर वह व्यक्ति
अल्पवयस्क हो, जब तक उसके अभिभावक ने उसके धार्मिक और शैक्षिक
अधिकारों को लेकर सहमति प्रदान की हो।’
ज़्यादातर विद्यालयों में सुबह जिन
प्रार्थनाओं को गाया जाता है,
वह एक विशेष धर्म को बढ़ावा देते हैं और इस तरह संविधान के
अनुच्छेदों का खुलेआम उल्लंघन करते है। हिंदी क्षेत्र के विद्यालयों में की जा रही
इन प्रार्थनाओं में ‘सरस्वती वन्दना’ और
मिशनरी स्कूलों में ईसाई प्रार्थना बहुत आम दिखते हैं।
क्या यह किसी खाश धर्म को बढ़ावा नहीं देते?
‘इंडिया
टुडे’ पत्रिका की एक खबर के अनुसार, ‘1 जुलाई
2015 के बाद से स्कूल की प्रार्थना में योग, प्राणायाम,
वंदे मातरम, सूर्य नमस्कार और ध्यान को अनिवार्य
बनाया गया है। बसंत पंचमी के दिन हर सरकारी और गैरसरकारी स्कूलों में आयोजित कार्यक्रम
में सरस्वती पूजा को अनिवार्य बनाया गया है। स्कूल विकास समिति हर स्कूल में बना दी
गई है और हर अमावस्या के दिन उसकी बैठक अनिवार्य कर दी गई है। भगवदगीता को पाठ्यक्रम
का हिस्सा बनाया गया है और गीता तथा भगतसिंह की जेल डायरी को भी स्कूलों में अनिवार्य
बनाया गया है। एकात्म मानववाद और सामाजिक समरसता पर किताबों को स्कूल पुस्तकालयों का
हिस्सा बनाया गया है।’ (बदलने लगी है शिक्षा, इंडिया टुडे, 3 अगस्त 2016, पेज
21)
धर्मनिरपेक्षता
के संदर्भ में आज इसके समूचे विचार की पड़ताल हो और यह खोजा जाए कि भारत जैसे विभिन्नताओं
वाले देश में धर्मनिरपेक्षता इतनी कमजोर बुनियाद पर क्यों खड़ी है। विभिन्न समुदायों
के बीच विवादों-तनावों की ऐसी किसी भी स्थिति में यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है। सवाल
उठता है कि आजादी मिलने के समय से ही जब हम धर्मनिरपेक्ष रास्ते पर उन्मुख हैं,
तभी भी यह कितना कमजोर क्यों मालूम पड़ता है। आखिर कौन हैं वे लोग जो
इसे खत्म करना चाहते हैं।
पूरे
भारत में शिक्षा धर्म के शिकंजे में है। धार्मिक शिक्षा से समाज आगे नहीं,
पीछे की ओर ही जा रहा है। अधिकतर समस्याओं की जड़ धार्मिक शिक्षा ही
है। धार्मिक शिक्षा के चलते सामाजिक व राजनीतिक विद्वेष बढ़ रहा है। यह शिक्षा हमें
एक-दूसरे से भेदभाव सिखाती है, दूर ले जाती है, वैमनस्य कराती है। कई राज्य घरेलू हिंसा की चपेट में हैं। वहां अंदरूनी धार्मिक,
पंथिक, वर्गीय संघर्ष होते रहते हैं, इससे उन्हें
आर्थिक व सामाजिक नुकसान झेलना पड़ रहा है।
धार्मिक
शिक्षा से समाज में प्रेम, शांति,
अहिंसा, इंसानियत की गारंटी नहीं है, तो फिर क्यों
न ऐसी शिक्षा से दूर रहा जाए। इस शिक्षा से अगर किन्हीं को फायदा है, तो वे हैं पंडे-पुरोहित,
पादरी, मुल्लामौलवी। यह छोटा-सा वर्ग ही धार्मिक
शिक्षा को कायम रखने में जुटा है। यह परजीवी वर्ग है। लिहाजा, धार्मिक शिक्षा और इसे चलाने वालों से दूर रहना ही बेहतर है।
आखिरी
सवाल ये है कि धर्म ने हमें दिया क्या है? हमें
उससे क्या प्राप्त हुआ है? लोगों को अलग-अलग समूहों में बाँटने
का ऐतिहासिक काम करने के बाद अब उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। हर धर्मगुरु कोई
अपने धर्म को सबसे बेहतर मानता है। सबका अपना अहं है, सबकी एक-दूसरे
के साथ प्रतियोगिता है और वे सब दूसरे धर्म वालों से घृणा करते हैं। धर्म हमें बार-बार
युद्ध की ओर ले जाते हैं। आज धर्म मानव कल्याण के नाम पर प्रतियोगिता मात्र बन कर
रह गया है और जहां प्रतियोगिता होगी वहाँ ईर्ष्या होगी और जहां ईर्ष्या होगी वहाँ
युद्ध होगा। यही युद्ध मानव को सबसे निम्नतम स्तर पर ले जा रहा है।
– अनीश कुमार