"आध्यात्मिक धर्म इंसानों को जोड़ता नहीं, बल्कि तोड़ता है"

हमारे देश भारत में धार्मिक बनना सहज है, हम सभी को पैदा होते ही धर्म को घुट्टी की तरह पिलाया जाता है। जबकि नास्तिक बनना इतना सहज नहीं होता है। जब हम शिक्षित होते हैं, अपने मन में उठे सवालों के तार्किक उतर ढूंढते हैं। धीरे-धीरे हमारे भीतर वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होने लगता है, और तभी सही मायने में हम हेतुवादी या नास्तिक बन पाते हैं।

मैं एक धार्मिक या धर्मभीरु परिवार में जन्मी हूं। बचपन से ही हमारे घर में बारहों महीने हर दिन कुछ न कुछ धार्मिक आडंबर होते हुए देखती रहती थी। पर मेरे मन में हमेशा कुछ न कुछ सवाल उठता था, जैसे कि ये पुरोहित जब घर में आता है, कुछ श्लोक बोल कर  पता नहीं क्या पूजा के नाम पर ढोंग करता है। जबकि उससे उम्र में काफी बड़े मेरे दादा-दादी भी उस पुरोहित के पैर छूते थे और धोते थे। मुझसे इस तरह की मानसिक गुलामी देख कर सहन नहीं होता था। लोग इतना पूजा पाठ क्यों कर रहें है? इससे होता क्या है? क्या हासिल हो जाता है? आदि आदि।

घर में तो हमेशा कलह लगा रहता था। केवल लड़का की चाह में छः लड़कियां हो गयीं, इससे पारिवारिक समस्याएं और बढ़ती गयी। घण्टों पूजा करती हुई मां गुस्से में रहती थी और वहीं से बीच बीच में हमें डांटती भी रहती थी। पूजा करने वालों के मन तो शांत रहना चाहिए न! फिर यह कैसी पूजा है? 

मां पिताजी हमें हमेशा सिखाते थे कि पूजा करने से भगवान को जो मांगोगे मिल जाएगा, अगर पूजा नहीं करोगे या भगवान को नहीं प्रार्थना करोगे तो दंड मिलेगा। यह होगा, वह होगा, पुण्य मिलेगा, पाप होगा। आदि आदि। इतने धार्मिक कर्मकांड किये जाने के बाद भी मुझे तो कुछ भी अच्छा होता हुआ नहीं दिखता था, निराश ही होना पड़ता था। पर हां, भगवान के नाम पर एक डर जरूर मन में भर दिया गया था।

जब भी मां पूजा करने बैठती थी, न जाने क्यों मेरे अंदर चिढ़ और गुस्से की भावना आने लगता था। और कभी कभी उनका आदेश मान कर बेमन से उस आडंबर में शामिल भी होना पड़ता था। इसी धार्मिक परम्पराओं की वजह से घर में बहुत सारे नियमों को जटिल बना दिया गया था। और घर के सभी लोग जातिगत भेदभाव व छुआछूत को भी खूब मानते थे। घर में मजदूरी करने आये, उन लोगोंका अपमान होते हुए देख कर मेरा मन बहुत व्यथित हो जाता था। यह सब कुछ देख देख कर मेरे भीतर एक क्रांतिकारी सोच पनपने लगा था।

शादी के बाद मैंने देखा पति भी धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। पर यह भी सच है कि अगर ये तब नास्तिक होते, तो हमारी शादी कभी नहीं हो पाती। और किसी कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान से मेरी शादी हुई होती, तो शायद ही मैं अपने इस स्वतंत्र विचारों को अपने जीवनशैली में शामिल कर पाती।

मेरे पति भी मेरे विचारों के साथ सहमत हुए, साथ ही उसे सहयोग व सम्मान भी दिया। तब उनके अंदर भी अनेक तरह की जिज्ञासायें थीं- धर्म को लेकर। उनकी सोच में वैज्ञानिक दृष्टिकोण था। इसीलिए इसी बात को लेकर हमारे बीच तर्क-वितर्क चलता था। 

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम दोनों को पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौक था। फिर उस समय हमें दिल्ली प्रकाशन की "सरिता" नामक एक पत्रिका मिली, जिसमें बड़े-बड़े लेखकों के इसी संदर्भ में सटीक, तर्कपूर्ण व प्रमाण सहित धर्म की भ्रांतियां और कमियों के बारे में कई लेख पढ़ने को मिले। बडी सरल भाषा में व्याख्या किये गए सारे तर्कशील लेख थे। 

हम पढ़ते गए, ज्ञानचक्षु खुलता गया। इससे सोचने समझने की शक्ति बढ़ने से धर्म व आध्यात्मिकता के वास्तविक स्वरूप को भी समझने लगे। उसके बाद भी देश विदेश के कई महान नास्तिकों के लिखित तर्कशास्त्र, पुस्तकें भी पढ़ने को मिले। हर पहलू पर विचार करते रहे। तर्क करते रहे, मन से धर्म का भय हटता चला गया, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होने से आत्मविश्वास भी बढ़ता गया।

हमारे घर में एक छोटी-सी लाइब्रेरी है। उसमें कुछ धर्मग्रन्थ जैसे- चारों वेद, रामायण, महाभारत, भागवत, कुरान, बाइबल आदि तथा और भी अनेक पुस्तकें हैं। उन धर्मग्रंथों में इतने बकवास काल्पनिक कथाएं भरी पड़ी है जो कि बहुत ही भ्रमात्मक व हास्यास्पद हैं। उसके साथ साथ महान नास्तिकों के लिखित अनगिनत पुस्तकों का संग्रह भी है, हमारे पास। हमारे घर में कोई भी धर्मिक कर्मकांड नहीं होते हैं, न ही हम घर में उस तरह की कोई फोटो या मूर्ति रखते हैं। हम दोनों और हमारे बच्चे भी सम्पूर्ण नास्तिक हैं।

हमारे परिवार में एकता और वैचारिक तालमेल भी बहुत ही अच्छा है। हम सभी नैतिकता, मानवता और सच्चाई का पालन करते हैं व इन मूल्यों में विश्वास करते हैं। हमें यह समझ में आ गया है कि उन काल्पनिक चरित्रों को पूजने से किसीको भी न कुछ हासिल हुआ है, न कभी होगा।

जो लोग अनवरत पूजा-पाठ करते रहते हैं, क्या वे कभी भी दुःख या विपदा के सम्मुखीन नहीं होते हैं? जो हम नास्तिकों पर बीतता है, वह उन धार्मिकों पर भी सब बीतता है। हम खुद अपनी बुद्धि से उन समस्याओं के समाधान ढूंढने की कोशिश करते हैं और सफल भी होते हैं। क्योंकि यह परिवेश व परिस्तितियों के कारण से होने वाली स्थिति होती है।

मेरे पति (बाल्मीकि नायक) लेखक हैं, और अभी इसी नास्तिकता के ऊपर उनके 8 किताबें छप चुकी हैं। हम ओडिशा के हैं और वो सिर्फ ओड़िया भाषा में लिखते हैं। और इतनी सरल भाषा में रुढ़िवादी परम्पराओं व अंधविश्वासों को दूर करने के बारे में तर्क संगत बातें लिखते हैं कि लोगों को आसानी से समझ में आ जाता है। ओडिशा के कई परिवार उनकी पुस्तकें पढ़ कर नास्तिक व हेतुवादी बनते जा रहें हैं। अभी भी हमारे प्रयास जारी हैं कि समाज से कुरीतियों को हटाएं।

इतिहास गवाह है कि सारे दुनिया में यही होता आया है और हो रहा है कि आध्यात्मिक धर्म इंसानों को जोड़ता नहीं बल्कि तोड़ता है। आपस में घृणा, द्वेष और हिंसा करना ही सिखाता है। धर्म की परिभाषा अलग अलग होता है। धर्म जब आध्यात्मिकवाद से जुड़ जाता है तब व्यक्ति, समाज व देश का नुकसान ही करता है। तथा कथित भगवान के सामने कैसे बलात्कार, हत्या, अत्याचार होता रहता है। इसीलिए साफ समझ में आता है मानववादी धर्म की जरूरत है, जो आध्यात्मिक धर्म में संभव नहीं है। इसीलिए तर्कशील चिंतन या वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही इंसान को अंधविश्वास और कुरीतिपूर्ण परंपराओं से मुक्ति दिला सकता है।

बहुत वर्ष पहले जब मानव विकास की स्थिति में आ रहा था, तो तब अपने गोष्ठी के लोगों को श्रृंखलित रखने के लिए यही भगवान नामक डर की सृष्टि किया था, जो आज के समय में एक भयानक बीमारी के रूप में परिवर्तित हो चुका है। सही मायने में मानव जाति के विकास के लिए इन आध्यात्मिक वाद से मुक्ति की जरूरत है। फिर हम सभी पूरी तरह सुरक्षित व श्रृंखलित भी रह पाएंगे। 

  – ममता नायक

लेखिका मूलतः ओडिशा की हैं तथा सोशल मीडिया पर अपने तर्कशील विचारों के साथ सक्रिय हैं. साथ ही वे 'नास्तिकता प्रचार अभियान' से भी जुड़ी हैं।
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