मैं सारे
धर्मों का आदर करता हूँ लेकिन मेरी सोच है कि धर्म का मानव जाति में उतना ही महत्व
है जितना पृथ्वी पर डायनासोर का। दोनों जीवाश्म हैं, एक पुराने बीते हुए समय के
अवशेष। किन्तु वैज्ञानिक सोच के अभाव में नास्तिकता भी उतनी ही खतरनाक हो सकती है
जितनी कि अंध-आस्तिकता।
मैं
नास्तिक क्यों हूँ? सर्वप्रथम, मैं नास्तिक नहीं हूँ। और आस्तिक भी नहीं। मेरे लिए नास्तिक या आस्तिक होना
महत्वपूर्ण नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि सत्य क्या है और उस सत्य की प्रमाणिकता
सिद्ध करने के साक्ष्य क्या हैं। मैं स्वयं को एक वैज्ञानिक सोच वाला खुले विचारों
वाला पूर्वाग्रह मुक्त व्यक्ति मानता हूँ या ऐसा बनने का प्रयास करता हूँ। यदि
वैज्ञानिक तरीके से यह प्रमाणित किया जा सके कि ईश्वर का अस्तित्व है,
तो मुझे ये मानने में कोई गुरेज नहीं। और यदि उन्हीं
वैज्ञानिक तरीकों से उस का न होना सिद्ध हो जाये, तो भी आंसू बहाने कि आवश्यकता नहीं।
जैसा कि
अक्सर होता है, परिवार और समाज हमारी पहली पाठशाला होते हैं। हम अपने बड़ों और आस पड़ोस के
लोगों को देखते हैं और उन्हीं का अनुकरण करते हैं। वामपंथी परिवार का बच्चा कम
उम्र में ही वामपंथी विचारों से परिचित हो जाता है और बड़ा हो कर वामपंथी बन जाता है।
धार्मिक परिवार में पला बच्चा धार्मिक बन जाता है। मेरे घर व आस पड़ोस में ठीक-ठाक
धार्मिक माहौल था। घर में रामायण, महाभारत, भगवद गीता, भागवत पुराण, दुर्गा सप्तशती जैसे धार्मिक पुस्तकें हिंदी अनुवाद के साथ
उपलब्ध होती थीं और मैं बचपन से ही किताबी कीड़ा था। अतः ऐसे परिवेश में एक धार्मिक
हिन्दू होना कोई बड़ी बात नहीं थीं। मुझे लगता है 20-25 साल तक मैंने
परंपरा का बस निर्वाहन किया।
यह मानव
समाज का नैसर्गिक लक्षण है कि अधिकांश लोग बिना सोचे या सवाल उठाये बस परंपरा का
पालन करते हैं। "क्यों" ऐसा प्रश्न उठाने कि जहमत नहीं उठाते। बहुत कम
लोग होते हैं, जो परंपरा
का अपने विवेक से परीक्षण करते हैं और लीक से विपरीत सोचने का साहस करते हैं। मेरे
जीवन में "क्यों" वाला क्षण संयोग से ही आया, जब मुझे महान वैज्ञानिक स्टीफन
हाकिंग की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम’ पढ़ने का मौका मिला।
यह
पुस्तक शुद्ध वैज्ञानिक थीम पर है और ये नास्तिकता या आस्तिकता पर कोई वाद विवाद
नहीं करती। लेकिन ये आसान भाषा में एक अबोध अवैज्ञानिक व्यक्ति को संसार की सृष्टि
व संरचना समझाने का प्रयास करती है और वो भी बिना किसी सृष्टिकर्ता के। इस महान
पुस्तक ने मेरी सोच में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन तो नहीं किया।
हाँ, मुझे सोचने और प्रश्न करने की प्रेरणा दी।
किसी घटना का वैज्ञानिक दृष्टि से निरीक्षण व विश्लेषण करने
पहला पाठ पढ़ाया।
मैं
विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ और विज्ञान
विषयों में ठीक-ठाक ही था। भौतिकी के सिद्धांतों, गणित के समीकरणों और रसायन की प्रक्रियाओं से सुपरिचित था।
सूर्य या चंद्र ग्रहण का वैज्ञानिक कारण तो पता था। फिर भी ग्रहण सम्बंधित
अवैज्ञानिक परम्पराओं का पालन करना सामान्य लगता था। विज्ञान पुस्तकों और
परीक्षाओं तक ही सीमित था। सामान्य जीवन में उस के लिए कोई ज्यादा स्थान नहीं था।
ये ऐसा
ही है कि कोई व्यक्ति वेद मन्त्रों या क़ुरान की आयतों का सस्वर पाठ तो करे, किन्तु
उन के अर्थ पर कभी विचार न करे। हाकिंग साहब की पुस्तक ने मेरे नज़रिये को थोड़ा
झटका दिया। किन्तु जिस पुस्तक ने मुझे परम्पराओं पर प्रश्न उठाने पर बाध्य किया,
वह थी कार्ल सैगन साहब की बेस्ट सेलिंग कृति ‘कॉस्मॉस’। पॉपुलर साइंस के इतिहास
में कॉस्मॉस एक अनूठी किताब है - मील का पत्थर।
यह मानव
इतिहास और साइंस के साथ उस के रोमांटिसिज्म की कहानी है। मानव इतिहास के उषाकाल
में जब मानव ने सोचना शुरू किया और अपने चारों तरफ प्रकृति के साम्राज्य के अचरजों
को देखा। और तब उसकी नयी-नयी सोचने की क्षमता ने सवाल पूछने को मज़बूर किया -
"क्यों"? लेकीन तब मानव के पास विज्ञान का औज़ार नहीं था। थी तो बस
कल्पना शक्ति। और इस कल्पना शक्ति और पीढ़ियों के प्रयास का फल - प्रकृति की हर
घटना के पीछे गढ़ी एक कहानी - चाहे संसार की सृष्टि हो,
वर्षा या अकाल हो, नदियाँ, वृक्ष, पहाड़, सूरज चाँद तारे हों, दिन-रात, मौसम, जन्म-मृत्यु - हर घटना के बारे में काल्पनिक व्याख्या! और
ऐसे धर्म की सृष्टि हुई। अज्ञान और कल्पनाशीलता का मिश्रण।
हर धर्म
प्रकृति के रहस्यों की व्याख्या करने का प्रयत्न करता है अपने हिसाब से। हर धर्म
का आरम्भ वैज्ञानिक क्रांति के पहले हुआ था। और किसी धर्म के अनुयायियों ने अपने
धर्म के सिद्धांतों को विज्ञान की कसौटी पर सिद्ध करने का साहस नहीं दिखाया है।
कॉस्मॉस रोचक भाषा में विज्ञान, मानव जाति और ब्रह्माण्ड का इतिहास समझाती है और यह बतलाती
है कि कैसे विज्ञान की शक्ति का उपयोग करके कमज़ोर-सी मानव जाति पृथ्वी की स्वामी
बन चुकी है (और नाश का कारण भी)।
तो क्या
ईश्वर का अस्तित्व है? नास्तिकता सत्य है या आस्तिकता। जो जानकारी मेरे पास उपलब्ध
है उस के आधार पर तो मैं विश्वास के साथ इतना ही कह सकता हूँ - मुझे नहीं मालूम!
मेरे पास ईश्वर के अस्तित्व को साबित करने वाला कोई ठोस प्रमाण नहीं। और बिना ठोस
प्रमाण के किसी चीज पर भरोसा करना अवैज्ञानिक है, भले ही कितने महान व्यक्ति ने उस की वकालत की हो। अपनी
अभूतपूर्व क्रांतिकारी खोजों के बावजूद हाकिंग साहब को नोबेल प्राइज नहीं मिला -
क्योंकि सारे सकारात्मक संकेतों व गणितीय व्याख्या के बावजूद उन के दावों को अब तक
फिजिकली प्रूव नहीं किया जा सका है।
दर्शनशास्त्र
में एक सिद्धांत है - गॉड ऑफ़ गैप्स। यानी हमारी समझ में जहाँ भी कमी है, वहां
ईश्वर का अस्तित्व है। पाषाण काल में हम नदी, पहाड़, पेड़, आग, पानी, ग्रहण, महामारी, बाढ़, आगजनी, हर जगह ईश्वर को देखते थे क्योंकि हमारी समझ बहुत कम थी।
जैसे जैसे ज्ञान का दायरा बढ़ा, ईश्वर का दायरा छोटा हो गया। आज हम बारिश,
बाढ़, तूफान या चक्रवात की भविष्यवाणी कर सकते हैं और उचित कदम
उठा सकते हैं। बीमारियों का उपचार कर सकते हैं, और सूर्य-चंद्र ग्रहण क्या, हम बृहस्पति और शनि पर के ग्रहणों की भी पूर्व सूचना दे
सकते हैं। अतः हम इन सब में ईश्वर को शामिल नहीं करते।
पहले
सारे (लगभग) वैज्ञानिक आस्तिक होते थे - न्यूटन, गैलीलियो, केप्लर, ये सारे निष्ठावान आस्तिक थे। लेकीन समय के साथ ये बदल गया।
आज के समय में आस्तिक वैज्ञानिकों की संख्या बहुत कम है। जहाँ जहाँ व्यक्तिगत
स्वतंत्रता है, जहाँ तानाशाही नहीं, जहाँ धर्म की शासन पर पकड़ कमजोर है,
जहाँ शिक्षा का उचित प्रसार हुआ है और आर्थिक सम्पन्नता है,
वहां नास्तिकों की संख्या ज्यादा है।
लेकीन
जहाँ इस के विपरीत परिस्थितियां हैं, वहां ईश्वर काफी मज़बूत है। उदहारण के लिए इस्लामी देशों में,
जहाँ ईश्वर को, और केवल इस्लामी ईश्वर को, न मानना प्राणघाती गुनाह है।
वहां आस्तिकों की संख्या 95% से ऊपर है।
लेकीन पश्चिमी यूरोप में नास्तिक लगभग 50% हैं। ईसाई देशों में, जहाँ धर्म और शासन का तलाक़ सब से पहले हुआ, वहां साइंस और
नास्तिकता दोनों का प्रसार सबसे ज्यादा हुआ है। वहीं इस्लामी देश दोनों में सब से
पीछे हैं। भारत जैसे देशों में अशिक्षा और आर्थिक विपन्नता ईश्वर के वफादार
सिपहसालार हैं।
एक बहुत
ही रोचक आख्यान है इस सम्बन्ध में। महानतमों में महान वैज्ञानिक न्यूटन ने जब
गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत दिया और सौर मंडल की व्याख्या की, तो ये बहुत सफल हुआ
और उपलब्ध खगोलीय आंकड़ों से साबित भी हुआ। जब न्यूटन ने किन्हीं दो खगोलीय पिंडों
के परस्पर इंटरेक्शन को एक्सप्लेन किया तो ये बिलकुल सही साबित हुआ। लेकीन जब
न्यूटन ने पूरे सौर मंडल की व्याख्या करने की कोशिश की तो ये फेल हो गया।
न्यूटन
के समीकरण के अनुसार सौर मंडल स्थायी नहीं हो सकता था। कुछ समय के बाद सारे ग्रहों
को सौर मंडल को छोड़ कर उड़ जाना चाहिए था। जब लाख
कोशिश कर के भी न्यूटन इसे एक्सप्लेन नहीं कर सके,
तो उस आस्तिक वैज्ञानिक ने एलान किया - ईश्वर समय समय पर
हस्तक्षेप कर के ग्रहों को भागने से रोकता है।
100 साल के बाद, दुसरे महान वैज्ञानिक लाप्लास ने न्यूटन के सिद्धांत के
गणितीय गैप को ठीक कर के, बिना ईश्वरीय हस्तक्षेप के, सौर मंडल को स्थायी कर दिया!!!!
सार ये
है कि अज्ञानता ईश्वर की संजीवनी है। जहाँ अज्ञान होता है,
वहां ईश्वर की
सम्भावना अधिक होती है। और जब आर्थिक विपन्नता हो, वहां भी परंपरा को तोड़ने वाली सोच का अभाव होता है क्योंकि
रोटी का प्रश्न सोचने का समय नहीं देता।
तो क्या
ये सिद्ध नहीं करता की ईश्वर महज एक कल्पना है और हमारे अज्ञान की उपज?
और क्या हम पर्याप्त ज्ञानी बन चुके हैं कि ये निर्णय ले
सकें कि ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं?
तो आत्मसंतुष्ट होने के पहले थोड़ा तथ्यों की जांच कर लें।
मानव जाति एक छोटे से ग्रह पृथ्वी पर विकसित हुई है और पृथ्वी पर ही सिमित है। कुछ
लोगों ने चाँद पर कदम जरूर रखा है लेकीन अब तक सबसे नजदीकी ग्रह पर भी कोई मनुष्य
नहीं पंहुचा है।
हम एक
छोटे से ग्रह पर सीमित हैं जो कि एक मंझोले आकार के तारे का चक्कर लगा रहा है। वह
तारा खुद अपनी गैलेक्सी के एक महत्वहीन कोने से गैलेक्सी के केंद्र का चक्कर काट
रहा है और ऐसे अरबों तारे हमारी अपनी गैलेक्सी में मौजूद हैं। और हमारी गैलेक्सी
ज्ञात ब्रह्माण्ड में खरबों (अरबों नहीं,
खरबों) में एक है। और हम ज्ञात ब्रह्माण्ड की बात कर रहे
हैं। ब्रह्माण्ड का अज्ञात हिस्सा जिसे हम देखने में असमर्थ हैं वो ज्ञात हिस्से
से भी बड़ा है।
हमें
अपनी तुच्छ पृथ्वी के बारे में भी समग्र जानकारी नहीं। कितने रहस्य पृथ्वी पर ही
अनुत्तरित हैं और हम ये दावा करें कि हम ने सिद्ध कर दिया है कि ईश्वर नहीं है?
ये तो वही बात हो गयी कि समंदर से हम एक बाल्टी पानी
निकालें और कहें - "देखो,
व्हेल बाल्टी में नहीं। इस से ये सिद्ध होता है कि व्हेल बस
एक कल्पना है और उस का अस्तित्व नहीं।" कोई निष्कर्ष निकालने के पहले हमें
अपना सैंपल साइज देखना चाहिए। अभी कुछ सौ साल पहले तक तो एक बड़ी आबादी ये मानती थी
कि ब्रह्माण्ड का निर्माण हुए अभी महज 6000 साल ही हुए
हैं।
कहने का
तात्पर्य ये है कि अभी हमारा ज्ञान बहुत सीमित है और हम भी। निकोलाई कार्दाशेव ने सभ्यता कि प्रगति का मापदंड
निर्धारित किया था और तीन अवस्थाएं परिभाषित कि थी - परमाणु,
तारा, गैलेक्सी। हमारी सभ्यता पहली अवस्था में है जिसने परमाणु
ऊर्जा का उपयोग सीख लिया है। दूसरी अवस्था तब आएगी जब हम सूर्य को चारों तरफ से
सोलर सेल से ढक कर उस की समस्त ऊर्जा का उपयोग कर पाएंगे। तीसरी अवस्था की तो
सोचना भी बेकार है।
क्या हम
इतने आश्वस्त हो चुके हैं कि हम विश्वास के साथ ईश्वर को झूठला दें?
और अगर ईश्वर सच में है तो क्या उसे इस बात से कोई फर्क
पड़ता है कि एक तुच्छ ग्रह के तुच्छ होमो-सैपिएंस उस के अस्तित्व को स्वीकारते हैं
या नहीं।
मुझे
लगता है कि हमारे पास पर्याप्त सैंपल डाटा का अभाव है। ऐसे में अभी हम यदि ईश्वर
के अस्तित्व के प्रश्न को अनुत्तरित रखें तो इस में कोई बुराई नहीं। "मुझे
नहीं मालूम" - ऐसा उत्तर धर्म में
बहुत खतरनाक होता है और ये धर्म की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है।
किन्तु विज्ञान में ये बहुत ही सामान्य
उत्तर होता है क्योंकि यही विज्ञान को शोध करने और प्रश्न का उत्तर खोजने की
प्रेरणा देता है। ऐसे ही विज्ञान का विकास होता है, और मानव जाति का भी।
धर्म के
पास हर प्रश्न का उत्तर होता है किन्तु प्रमाण एक का भी नहीं। विज्ञान के पास कुछ
प्रश्नों के प्रमाणसहित सटीक उत्तर होते हैं,
कुछ प्रश्नों के उत्तर तो होते हैं किन्तु प्रमाण नहीं। कुछ
प्रश्नों के उत्तर भी नहीं होते और अधिकांश समय तो सही प्रश्नों का भी पता नहीं
होता। लेकीन विज्ञान अपनी अज्ञानता को स्वीकार करता है और सत्य की खोज करता है और
बहती नदी की निर्मल धारा के सामान आगे बढ़ता रहता है।
धर्म के
पास सारे सवालों के जवाब हैं और इसीलिए वह एक ठहरे तालाब के सामान है जिस में आगे
बढ़ने की उत्सुकता नहीं। विज्ञान संशय से मज़बूत होता है और धर्म संशय से डरता है।
विश्वास विज्ञान का शत्रु है और धर्म की नींव विश्वास पर आधारित है।
तो मेरा उत्तर
है - मैं न आस्तिक हूँ न नास्तिक। अलबत्ता मैं खुद को वैज्ञानिक सोच वाला
अज्ञेयवादी (agnostic) कहना चाहूंगा।
– रितेश कुमार
लेखक
परिचय: वे पेशे से
सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं और अभी अमेरिका में कार्यरत हैं। धर्म,
इतिहास, दर्शन और विज्ञान उनके प्रिय विषय रहे हैं। अंधविश्वासों पर
प्रश्नचिन्ह लगाना और वैज्ञानिक सोच को आम जीवन में लाना उनका शगल है।
यह लेख
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