यह लेख काल्पनिक इंटरव्यू के आधार पर तैयार की गई है जिसका
मुख्य उद्देश्य अपने साथियों और जनता के बीच वैज्ञानिक मानवतावाद के बारे में सही
संदेश को पहुंचाना है। तो पढ़िए और खुद अपने तर्कों व अनुभवों के आधार सही-गलत का
निर्णय लीजिये।
प्रश्न: आप किस धर्म को मानते हैं?
उत्तर: हम
किसी स्थापित धर्म को नहीं मानते और उनके मतों और सिद्धांतों के मामले में हम
निरपेक्ष दृष्टि रखते हैं। हमारे लिए मत पंथ जिनकी बहुसंख्य बातें कटटर और
अवैज्ञानिक है, अस्वीकृत है। धर्म का अर्थ अगर चारित्रिक
उन्नति, प्रेम का बिना किसी भेदभाव के विस्तार है और धरती के
जीवन को सम्पूर्ण रीती सुखी बनाने का प्रयास है तो हमारा कोई भेद नहीं। लेकिन
धर्मो का इतिहास और वर्तमान इसके उलट ही है इसलिए तार्किक रूप से वे सभी अयोग्य है।
प्रश्न: तो क्या आप सभी धर्मों के विरोधी हैं?
उत्तर: हम उन समस्त वादों और मान्यताओं का विरोध करते हैं
जो कि किसी अलौकिक सत्ता में विश्वास करती हैं और मनुष्य मनुष्य को आपस में किसी
भी लेबल के आधार पर बाँटती है।
प्रश्न: अगर ईश्वर नहीं है तो धरती को किसने बनाया यह सारा
ब्रह्मांड कौन चला रहा है?
उत्तर: ब्रह्मांड का बनना और चलना एक प्राकृतिक घटना है
इसकी उत्पत्ति पर अभी विज्ञान रिसर्च कर रहा है परंतु अब तक प्रचलित थ्योरीज़ में
बिग बैंग थ्योरी सर्वाधिक स्वीकृत है तथा उसमे भी समय के साथ अधिक तर्कपूर्ण बातें
सामने आ रही है; अतः हम भी इसी अनुसार इसकी व्याख्या करते
हैं। क्योंकि अगर इस ब्रह्मांड का बनाने वाला कोई ईश्वर होता तो उसे किसने बनाया
यह प्रश्न फिर भी शेष रहता? और अगर जो यह मानते हैं कि उसको किसी ने
नहीं बनाया वह अपने आप प्रकट हुआ तो फिर इस हिसाब से ब्रह्मांड को अपने आप प्रकट
होने वाला भी माना जा सकता है।
प्रश्न: लेकिन
जगत की हर चीज जैसे टेबल कुर्सी आदि सभी का कोई न कोई बनाने वाला होता ही है?
उत्तर: देखो जगत में किसी चीज़ का बनना दो प्रकार से होता है
एक तो किसी व्यक्ति द्वारा दूसरा प्राकृतिक घटनाओं के संयोग से। कारपेंटर कुर्सी
बनाता है टेबल बनाता है लेकिन एक बार बनने के बाद वह टेबल कुर्सी नित्य बढ़ते घटते
नहीं रहते, लेकिन ब्रह्मांड कोई ऐसा नहीं है कि पहली बार
जैसा बना अब तक वैसा ही है। वह प्रतिक्षण बढ़ रहा है फैल रहा है। निरंतर
परिवर्तनशील है ; जैसे दूध से दही कोई व्यक्ति नहीं बनाता,
वह तो दही के जीवाणु की दूध के साथ क्रिया का परिणाम है ऐसे ही
विश्व की उत्पत्ति और जीवन भी प्राकृतिक रासायनिक एवं जैविक घटनाओं का परिणाम है।
प्रश्न: लेकिन अनेकों संतो ने ईश्वर की शक्ति से चमत्कार
किए हैं उनका क्या?
उत्तर: अव्वल तो हम चमत्कारों में यकीन नहीं रखते और अब तक
जहां भी चमत्कार पकड़े गए वहां 99% हाथ की सफाई और विज्ञान के नियम ही थे और बाकी 1% घटनाएं जिन्हें सामान्य रूप से नहीं समझा जा
सकता वह भी आगे चलकर विज्ञान के दायरे में आ जाएंगी। और अगर चमत्कार ही देखने हो
तो विज्ञान के देखो जो की सभी के सामने प्रत्यक्ष भी है और परीक्षण के योग्य भी -
क्या इंसान का एक साथ झुंड में बैठे-बैठे हवा में उड़ना,महल
जैसे विशाल जहाजों का पानी पर तैरना क्या किसी चमत्कार से कम है, बटन दबाते ही हजारों किलोमीटर दूर चल रहे क्रिकेट मैच के स्कोर अपने सामने
हाजिर कर लेना क्या इसे भी हम चमत्कार ही कहेंगे! विज्ञान कभी भी अपनी उपलब्धियों
को चमत्कार नहीं कहता। वैज्ञानिक , इन ढोंगी बाबाओं के समान
अहंकारी और दुष्ट नहीं होता; चमत्कार के नाम पर सिर्फ ढोंगी
अपनी जेबें गर्म करते हैं और जनता को मूर्ख बनाते हैं।
प्रश्न: लेकिन आज भी अलौकिक सिद्धियों का दावा करने वाले
पीर फकीर और साधु दुनिया में मौजूद हैं?
उत्तर: जो लोग अलौकिक शक्तियों का दावा करते हैं उन से
हमारा कहना है कि भारत-पाकिस्तान की सीमा पर जाकर क्यों नहीं अलौकिक शक्तियों के
द्वारा दुश्मनों का नामोनिशान मिटा देते हैं , देश के लाखो अस्पतालों में मरीज तरह तरह की बीमारियों से ग्रस्त होकर दम
तोड़ रहे हैं क्यों नहीं वहां जाकर उनकी बीमारियां दूर करते हैं? जो अलौकिक शक्तियों से आपको धन संपन्न बना सकते हैं वह खुद क्यों अपनी
शक्तियों से स्वयं के लिए महल नहीं बनाते क्यों विज्ञापन देकर फीस लेकर होटलों में
ठहरकर लोगों को मूर्ख बनाते हैं? महाराष्ट्र में अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति
के द्वारा पिछले 10 सालों से चमत्कार का वैज्ञानिक एवं
सार्वजनिक प्रदर्शन करने वाले को लाखों रुपए का पुरस्कार घोषित है लेकिन आज तक कोई
भी पीर फकीर या बाबा उनके सामने चमत्कार साबित करते हुए उस इनाम को नहीं ले सका
ऐसा क्यों? चमत्कारों के नाम पर हमारी भोली-भाली जनता
को सिर्फ ठगा जाता है और उनका धार्मिक शोषण किया जाता है।
प्रश्न: लेकिन इन धर्मो ने क्या मानवता का जरा भी भला नहीं
किया?
उत्तर: ऐसा नहीं है धर्मों के द्वारा प्रत्येक क्षेत्र में
कुछ अच्छे कार्य भी हुए हैं लेकिन इतिहास बताता है कि लंबे समय में धर्मों में आई
अवैज्ञानिकता और कटटरता ने मानवता समाज और विश्व का बहुत नुकसान भी किया है। ऐसी
परिस्थितियों में धर्म-श्रद्धा, जाति और
ईश्वर जैसे शब्दों का बहुत दुरुपयोग हुआ है इसलिए हमारे हिसाब से अब इनसे दूरी
बनाए रखना ही बेहतर है।
प्रश्न: तो क्या हम सब लोग ईश्वर को मानना छोड़ दें?
उत्तर: हम ऐसा कोई आग्रह नहीं करते। संविधान में प्रत्येक
व्यक्ति को उसकी मान्यताओं की छूट है वह चाहे जिसे मान सकता है, लेकिन हमारा आंदोलन सारी अमानवीय, अवैज्ञानिक-धारणाओं के अस्वीकार का है फिर चाहे उसके रास्ते में कोई भी आ
जाए। अगर आप अपने धर्मग्रंथों और ईश्वर को इन कसौटियों के विरुद्ध मानते है तो आप
खुद ही असत्य का समर्थन करते है।
प्रश्न: तो क्या आप मंदिर मस्जिद तोड़ने जैसे हिंसात्मक
कार्यों का समर्थन करते हैं?
उत्तर: बिल्कुल
नहीं। हम अपना विरोध केवल तर्क विज्ञान और सार्थक बहस के द्वारा जताते हैं। हमारे
आंदोलन में हिंसा का कोई स्थान नहीं है।
प्रश्न: तो क्या विज्ञान ने हमेशा मानवता का भला ही किया है?
उत्तर: हम ऐसा भी नहीं मानते गलत आदमी के हाथों में पढ़कर
उसका दुरूपयोग भी हुआ है और आगे भी हो सकता है इसीलिए हम अपने दर्शन में विज्ञान
को अनिवार्य रूप में मानवतावाद से जोड़कर देखते हैं। और मानवता का भला ही इस
वैज्ञानिक मानवतावाद की कसौटी रहेगा।
प्रश्न: अगर परमात्मा नहीं है तो आत्मा के बारे में आप की
क्या मान्यता है?
उत्तर: हम
जिस प्रकार परमात्मा को अस्वीकार करते हैं उसी प्रकार आत्मा के अस्तित्व पर भी
प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। हमारा मानना है कि मनुष्य एक मनो-दैहिक (psychosomatic) सम्मिश्रण है। इसके अलावा किसी तीसरे तत्व का वहां कोई
स्थान और उसकी उपयोगिता ही नहीं है ।
प्रश्न: लेकिन आत्मा ना हो तो मनुष्य के भीतर जो अच्छाई का
रास्ता बताने वाली आवाज है वह कहां से आती है?
उत्तर: आपके अंदर से जितनी भी अच्छी बुरी आवाजें आती है वह
आपके मन-मस्तिष्क का ही परिणाम है। चाहे वे एक दूसरे के विपरीत आती हुई लगे। ये
आवाज़े आप के बचपन के पालन-पोषण संस्कार और मान्यताओं के हिसाब से बदलती रहती है। इसलिए
यह एक आत्मा जो कि सब में समान रुप से होनी चाहिए थी उसकी आवाज नहीं हो सकती।
इसे ऐसे समझें – एक कट्टर जैन परिवार में पैदा हुआ बच्चा बड़ा होने पर जब कभी प्याज लहसुन
खा लेता है तो उसकी आत्मा उसे कचोटती हुई आवाज देती है, लेकिन
वही ऐसी कोई आवाज हिंदू को प्याज खाते वक्त नहीं आती। एक
वैष्णव मुर्गी या बकरे का मांस खाने की कल्पना भी नहीं कर सकता क्योंकि उसके अंदर
की आवाज उसे कचोटती रहेगी लेकिन वही एक राजपूत या मुस्लिम परिवार में पैदा पैदा
होता तो अन्य साथ सब्जियों की भांति मांस खाने पर भी आत्मा के विरोध की कोई आवाज
नहीं आती।
किसी के घर से जूते चुराने के बाद आपकी आत्मा से धिक्कार की
आवाज अवश्य आती है लेकिन वही जूते की चोरी जब शादी में दूल्हे के पैरों से की जाती
है तब अंदर से पछतावे की नहीं बल्कि शाबाशी की आवाज आती है। इन सब बातों से यह
आसानी से समझा जा सकता है कि यह आवाज; किसी तृतीय आत्मा तत्व की नहीं बल्कि हमारे ही संस्कारों में ढले मन की है।
प्रश्न: क्या
आपको लगता है कि विश्व के सारे लोग अपना धर्म मत और पंथ छोड़कर वैज्ञानिक
मानवतावाद को अपना लेंगे?
उत्तर: नहीं!
हम यह मानते हैं कि संसार के प्रत्येक मनुष्य के पास अपना स्वतंत्र
मस्तिष्क है और उसे उस के चुनाव की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए। हमारी केवल यही
इच्छा है कि विश्व स्तर पर हमारे मन में में विराट मानवता और इसके वैश्विक
हितों को प्राथमिकता देने का दृष्टिकोण पैदा हो।
प्रश्न: ईश्वर का डर ना रहने से लोग अराजकतावादी और
उन्मुक्त पशु हो जाएंगे?
उत्तर: भय और लोभ पर आधारित अपनाये अनुशासन का मूल्य दो
कौड़ी का है। यही कारण है कि खुद को धार्मिक कहने
वाले समाज में चारित्रिक पतन की सीमाएं भी पार होती देखी गई है। हमारा विश्वास
धार्मिकता की जगह नैतिकता पर है जिसका पालन मनुष्य किसी अलौकिक सत्ता के डर से
नहीं बल्कि अपने विवेक सामाजिक मूल्य एवं संवैधानिक कायदों के तहत करेगा। दुनिया
के नास्तिको में कई महान वैज्ञानिक, दार्शनिक, समाजसेवी, क्रांतिकारी, साहित्यकार,
संगीतकार, लेखक, कलाकार,
खिलाड़ी आदि रहे हैं क्या ईश्वर और धर्म को न मानने के कारण यह
अनैतिक और अराजकतावादी उन्मुक्त पशु हो गए थे?
प्रश्न: तो क्या होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस जैसे
धार्मिक त्योहार नहीं मनाना चाहिए?
उत्तर: हम किसी त्योहार के विरोधी नहीं है। यह आपका
व्यक्तिगत मामला है। यदि त्यौहारों का उद्देश्य समाज में नई ऊर्जा का संचार
करना, कुरीतियों को दूर करना, अंधविश्वास हटाना, सोचने समझने और मानवता की भलाई के
लिए त्याग करने की प्रेरणा देना है तो आप उन्हें मना कर बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
लेकिन हम त्योहारों की खुशी के नाम पर पर्यावरण प्रदूषण, कुरीतियों
के पालन, और वर्ग विशेष के अधिकारों के हनन का पुरजोर विरोध
करते हैं। अफ़सोस इस बात का है कि हमारे बहुत से धार्मिक त्यौहार बड़े पैमाने पर
चंदा उगाने, पयार्वरण प्रदुषण करने और पूंजीवादी लोगों के
उत्पादों का समर्थन करने का साधन बन चुके है। और यही हमारा विरोध है।बाकी समाज में नई ऊर्जा भर सके ऐसे त्यौहार तो हम भी मनाते हैं।
प्रश्न: आप किस तरह के त्यौहार मनाते हैं?
उत्तर: एक वैज्ञानिक मानवतावादी होने के नाते हम सारी विश्व
मानवता को जोड़ने वाले, लाभ देने वाले त्यौहार मनाना पसंद करते हैं
जैसे पर्यावरण दिवस, वसुंधरा दिवस, रक्तदान
दिवस, अंगदान दिवस, विज्ञान दिवस,
अंधश्रद्धा निवारण दिवस, सामाजिक
संघर्षों के क्रांतिकारियों के जन्मदिवस और पुण्यतिथि, एड्स
जागरूकता दिवस, नशा मुक्ति दिवस, बाल
दिवस, युवा दिवस, देशों के स्वतंत्रता
दिवस, गणतंत्र दिवस, मातृ दिवस,
पितृ दिवस, रक्षाबंधन, मित्रता
दिवस, टीचर्स डे जैसे बहुत से पर्व एवं दिन विश्व स्तर पर
महत्व के एवं धर्म, जाति, भाषा,
प्रांत की सीमा से मुक्त है हम उन्हें मनाने में सार्थकता समझते हैं।
प्रश्न: अगर कोई ईश्वर या धर्म के नाम पर सामाजिक समरसता
फैलाएं और शांति एवं प्रेम करना सिखाए तब भी क्या आप उसका विरोध करेंगे?
उत्तर: हमारे लिए वह प्रत्येक सिद्धांत स्वागत योग्य है
जिसमें आवश्यक रूप से यह पांच शर्तें विशेषताएं मौजूद हैं –
1. मनुष्य को किसी अलौकिक शक्ति के अस्तित्व से मुक्त करें।
2. नैतिकता से उपर अन्य किसी चीज को ना समझे।
3. समाज में वैज्ञानिक विचारधारा के रास्ते में बाधक न बने।
4. मनुष्य की स्वतंत्रता में नैतिकता के उल्लंघन के अलावा
अन्य रूप से दखल ना दें।
5. समानता, विश्वबंधुत्व,
एकता और सद्गुणों का प्रेरक हो।
लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि कोई भी पंथ संप्रदाय इन सभी
सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाता।
प्रश्न: आपमें और विशुध्द मनमौजी में क्या अंतर है?
उत्तर: विशुध्द मनमौजी अनिवार्य रूप अहंकार के साथ शुरू
करता है उसकी धारणा में नकारात्मकता की झलक मिलती है। कई बार वह मानवतावाद तक को
नहीं स्वीकार कर पाता और विशुद्ध रूप से स्वार्थ साधन और मौज उड़ाने की बातों को
भी कह देता है। लेकिन हम इस प्रकार के दर्शन में यकीन नहीं रखते।
हमें मानवता के प्रति उच्चतम बलिदान की भावना में व्यक्तिगत
स्वार्थपरता से अधिक यकीन है।
प्रश्न: क्या आप राष्ट्रवाद में यकीन रखते हैं?
उत्तर: हाँ भी और नहीं भी। अगर विश्व संस्कृति के प्रश्न का
मुद्दा है तो हमारा मानना है कि समस्त देशों को स्वयं की सीमाओं को विश्व राज्य के
अस्तित्व हेतु विलीन कर देना चाहिए। इस धरती पर राष्ट्रों के पास पूरे विश्व को
सुख शांति से भरने की सामग्री मौजूद है पर पृथक-पृथक देशों के नाम पर हमारी
अधिकांश बुद्धिमत्ता, श्रम, शक्ति और संपदा
युद्ध में लग जाती है। अगर जमीन पर खींची राष्ट्रों की यह लकीरें मिट कर सम्पूर्ण
विश्व एक राष्ट्र बन सके तो यह सब बंद हो सकेगा।
जब तक ऐसा न हो सके तब तक हम राष्ट्रवाद में केवल इतना यकीन
रखते हैं कि हमारे देश के सम्मान को बनाए रखना,ऊँचा उठाना, वहाँ के कानूनों का पालन करना, सभ्यता संस्कृति और मूल्यों का पालन करना, उस देश के
संविधान का पालन करना एक नागरिक के नाते हमारा प्रमुख कर्तव्य एवं दायित्व है।
प्रश्न: क्या आपको नहीं लगता कि आपके विचार अव्यवहारिक हैं?
उत्तर: प्रत्येक कठिन चीज पहले अव्यवहारिक ही लगती है। सदियों
पहले मनुष्य के उड़ने की कल्पना और परखनली में भ्रूण पैदा करने की बातें भी
अव्यवहारिक लगती थी लेकिन आज वह एक सत्य है। धर्मो, मत, पंथों, राष्ट्रों और
भाषाओं के विलय और विश्व नागरिकता की बातें इस समय चाहे कितनी भी अव्यवहारिक लगे
हैं उनका भविष्य सुनिश्चित है। इन सब में चाहे जितनी देर लगे है इन्हें अपनाए बिना
विश्व का कोई भविष्य नहीं।
प्रश्न: सभी धर्मों में आज के समय याने कलयुग को बुरा समय
कहा गया है आपका इस बारे में क्या कहना है?
उत्तर: हमारा
ऐसा मानना है कि मनुष्य जाति का कोई आदर्श काल ऐसा नहीं था जबकि एक ही समय पर यहाँ
बहुत अच्छे और बहुत बुरे लोग मौजूद नहीं थे। चोरी, लूट
वेश्यावृत्ति, हत्याएं, अनैतिकता,
बीमारियाँ, मृत्यु पहले भी थी आज भी है। लेकिन
पहले की अपेक्षा आज कुछ व्यक्तियों के जीवन स्तर में सुधार हुआ है, शिक्षा का प्रतिशत बढ़ा है, मृत्यु दर घटी है कई
बीमारियों पर पूर्ण पर विजय प्राप्त हुई है। अच्छे
लोगों को देश विदेश तक में मिलने-जुलने के सर्वाधिक अवसर बने हैं, जातिवाद कम हुआ है और खुलापन बढ़ा है जब ऐसे समय में सिर्फ कलयुग को ही
बुरा समय कहने या मानने का कोई औचित्य नहीं। हमारा मानना है कि बहुसंख्य व्यक्ति
जिस समय में अच्छे कार्य करें वही युग अच्छा है।
प्रश्न: सभी धर्म कलयुग के अंत में किसी अवतार पैगंबर याने
मसीहा का इंतजार कर रहे हैं आपका क्या विचार है वह समय कब आएगा?
उत्तर: (हँसी)
कभी नहीं। ईसाइयत पिछले 2000 साल से नए मसीहा का इंतजार कर
रही है, इस्लाम इमाम मेहदी के इंतज़ार में है, बौद्ध मैत्रेय बुद्ध की राह देख रहे है और हिन्दू कल्कि अवतार की लेकिन अब
तक कोई नहीं आया। यहाँ भारत में भी अनेक लोग कई भगवानों याअवतारों के इंतजार में बैठे
हैं इस बीच में न जाने कितने अवतार और भगवान गांव-गांव, शहर-शहर
में पैदा होकर मर भी गए लेकिन कुछ नहीं बदला। हमारा मानना है कि श्रेष्ठ
व्यक्तियों से यह धरती कभी भी रिक्त नहीं थी प्रत्येक मनुष्य को अब यह बीड़ा स्वयं
उठाना है। किसी कल्पित अवतार के इंतजार में हाथ पर हाथ रख कर बैठने से अच्छा है
स्वयं को बदलें और अपने आसपास के परिवेश को बदलने के लिए काम करें।
प्रश्न: बहुत से धर्म पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं आपका
क्या कहना है?
उत्तर: इस संबंध में धर्मों के बीच में ही बहुत सा विवाद
होता रहता है। अब्राहिमिक धर्म पुनर्जन्म के सिद्धांत में बिल्कुल विश्वास नहीं
करते और उनके पास इसके लिए सभी वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य एवं तत्व मौजूद हैं
लेकिन वह भी यह बात विज्ञान के आधार धर्म के आधार पर मानते हैं। पूर्व के धर्म
पुनर्जन्म, चौरासी के चक्कर और जन्म मरण के चक्र को
अपने धर्म का एक महत्वपूर्ण अविभाज्य अंग मानते हैं और इसे वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक
साबित करने के लिए पुरजोर दलीलें भी देते हैं। अब आप ही कहें एक ही समय में दो
विरोधी बातें और दोनों ही वैज्ञानिक हों यह कैसे संभव है?
वैज्ञानिक तौर पर पुनर्जन्म का मानना अब तक अंधकार में तीर
चलाना है जिसका अस्तित्व अब तक प्रमाणित नहीं हो पाया है। यदा कदा हमें जो घटनाएं
और खबरें देखने को मिलती हैं उनमें गहराई से जांच करने पर वैज्ञानिक सत्यता कम; उथले संयोग और दिमाग की बीमारी और चेतन मन
के विकार ही अधिक देखने को मिलते हैं। वैसे भी प्राकृतिक तौर पर जब आपको अपने
पिछले जन्म की कोई बात याद ही नहीं रहती ना आप उन जन्मों को मानकर भी उनमें वापस
जाकर कुछ सुधार कर सकते हैं तो उसे वास्तविक मारने से कोई विशेष लाभ नहीं।
प्रश्न: लेकिन पुनर्जन्म को मानने से भी तो कोई नुकसान नहीं
है?
उत्तर: बड़े भारी नुकसान है। पुनर्जन्म का सिद्धांत आज के
फल को पूर्व जन्म के कर्मों पर निर्भर बताता है जिसमें कोई परिवर्तन ही संभव नहीं
है बस फल ही भुगतना शेष है। दूसरा बड़ा नुकसान है की यह मनुष्य को एक ही जन्म में
सब कुछ कर गुजरने की प्रेरणा से रोकता है जब बार-बार जन्म होंगे तो इसी जन्म में
सारे संसार की भलाई की इतनी जल्दी क्या परवाह करना। बार बार पैदा होते रहेंगे और
थोड़ा थोड़ा करते रहेंगे। इसकी तीसरी बड़ी बुराई यह है कि यह मानव मानव के बीच
संवेदनात्मक संबंध को तोड़ता है। दूसरा मनुष्य अगर गरीब और उत्पीड़ित है तो वह उसके
किए गए कर्मो का फल भोग रहा है और मुझे उसके कर्म और फल के बीच में दखल क्यों देना
चाहिए ऐसी मान्यता है पुनर्जन्म के सिद्धांत से ही पैदा होती है।
उसके स्थान पर दूसरे मनुष्य के दुख एवं व्यथा इस समय समाज
के अन्य शिक्षित एवं समृद्ध लोगों की मदद न मिलने के कारण ही हैं अगर यह सिद्धांत
मान्य हो तो प्रत्येक मानव एक दूसरे की विपन्नता को दूर करने में सारी शक्ति लगा
दे।
अगली बड़ी बुराई है पुनर्जन्म लेकर उसी परिवार घर कुटुंब
में जन्म लेने की मिथकीय कल्पना; क्योंकि
इस स्थिति में व्यक्ति मरते समय भी अपनी धन संपदा को समाज के लिए खर्च करने की
बजाए अपने बेटों पोतो के लिए छोड़ जाता है ताकि अगर उसका जन्म इसी परिवार में हो
तो पारिवारिक संपत्ति के रूप में यही सब कुछ उसे वापस मिले।
पुनर्जन्म को मानने वाले लोग मरते समय अपने अंगों का दान
करना भी गलत मानते हैं उनके अनुसार इस जन्म में यह सारे अंग होने ईश्वर की कृपा से
मिले थे और अगर इन एक दान करने पर ईश्वर बाद में अगले जन्म में उन्हें उस अंदर से
रहित कर देगा जिसका उन्होंने दान किया है। इसके विपरीत जब आप इसी जन्म को प्रथम और
अंतिम मानते हैं तो जाते-जाते आप अपने अंग मानवता की सेवा में समर्पित कर अनेकों
वंचितों जिंदगी में खुशियां भर सकते हैं।
मरने के बाद सम्पत्ति को अपने स्वर्ग के लालच में पण्डे
पुजारियों और चर्चों के नाम करने की जगह अगर गरीबों की दशा सुधारने के लिए दे दिया
जाये तो विश्व का कितना कल्याण हो सकता है।
इन इन सभी तर्कों के आधार पर देखने से हम मानते हैं कि
पुनर्जन्म की धारणा संसार में दुखों और पीड़ा को कम नहीं बल्कि बढ़ावा ही देती है।
– प्रोफेसर (डॉ.) ऋषि आचार्य
तस्वीर
प्रतीकात्मक ‘फ़िल्म ओ माय गॉड’ से साभार
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