पेरियार से हम क्या सीख सकते हैं?


इस देश में भेदभाव और शोषण से भरी परम्पराओं का विरोध करने वाले अनेक विचारक और क्रांतिकारी हुए हैं जिनके बारे में हमें बार-बार पढ़ना और समझना चाहिए। दुर्भाग्य से इस देश के शोषक वर्गों के षड्यंत्र के कारण इन क्रांतिकारियों का जीवन परिचय और समग्र कर्तृत्व छुपाकर रखा जाता है। हमारी अनेकों पीढियां इसी षड्यंत्र में जीती आयीं हैं। किसी देश के उद्भट विचारकों और क्रान्तिकारियों को इस भाँती छुपाकर रखने, या अनुपलब्ध बनाए रखने में ना तो देश का हित है और ना समाज का हित है। हाँ घटिया राजनीति का कोई तात्कालिक हित अवश्य हो सकता है।

ऐसे ही हिंदी पट्टी में अदृशय बना दिए गए एक विचारक और क्रांतिकारी हैं रामास्वामी पेरियार, जो द्रविड़ और दलित आन्दोलनों के सन्दर्भ में याद किये जाते हैं। दलित और द्रविड़ शब्द की युति में बांधकर उनके मौलिक दान को नकारने का या कम करके आंकने का काम आज तक होता आया है। ये एक बहुत पुराना षड्यंत्र है, जो लीक से ज्यादा हटकरचलने वाले क्रांतिकारियों के साथ इस देश में सत्ता और समाज के ठेकेदारों ने हमेशा किया है। यूं तो भगत सिंह और आजाद भी क्रांतिकारी हैं और लीक से थोडा हटकरचलते हैं, वे अपनी क्रान्ति की प्रस्तावनाओं में इस देश की समाज व्यवस्था की पूरी सडांध को बेनकाब नहीं करते हुए क्रान्ति का मार्ग बनाते हैं, इसलिए थोड़े सुरक्षित मालूम पड़ते हैं।

इसीलिए वे सबको स्वीकृत हैं, और सबके आदर्श बन जाते हैं। उनकी क्रान्ति, और दान निस्संदेह अतुलनीय है, और वे परम सम्मान के अधिकारी भी हैं, लेकिन सम्मान और लोकप्रियता की दौड़ में पिछड़ जाने वाले या जबरदस्ती किसी परदे के पीछे छिपा दिए गये अन्य क्रान्तिकारियों पर भी व्यापक विचार होना चाहिए।

ऐसे लीक से बहुत ज्यादा हटकरचलने वाले रामास्वामी पेरियार जैसे क्रांतिकारियों की सभी बातों से हम सहमत हों, ये कतई आवश्यक नहीं है, लेकिन उनके विचार की प्रक्रिया और एक नए समाज के बारे में उनकी मौलिक मान्यताओं को हमें नि:संकोच सबसे साझा करना चाहिए, और उस पर खुली चर्चा के अवसर निर्मित करने चाहिए।

जहां तक समत्व और सम्मान से जीने का प्रश्न है, वहां तक उनके विचारों को बहुत आसानी से अपनाया जा सकता है। हालाँकि भाषाई या प्रजातीय अलगाव और एक अलग राष्ट्र की मांग के अतिवाद के बारे में उनके प्रस्ताव के सम्बन्ध में हमेशा ही सहमत नहीं हुआ जा सकता। इसके बावजूद उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से कुछ बहुत महत्वपूर्ण शिक्षाएं ली जा सकती हैं।

रामास्वामी का जन्म 17 सितम्बर 1879 को मद्रास प्रेसिड़ेंसी के इरोड नामक कसबे में एक धनी व्यापारी नायकर परिवार में हुआ। बहुत शुरुआती जिन्दगी में ही उन्होंने जाति, धर्म और प्रजाति (रेस) के आधार पर होने वाले भेदभाव और शोषण को करीब से देखा। वे खुद भी इन कुरीतियों के शिकार हुए और इन्ही के कारण भेदभाव के खिलाफ उनके मन में क्रांतिकारी विचार जन्मे।

उनकी औपचारिक शिक्षा 1884 में छः वर्ष की अवस्था में आरम्भ हुई, और पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई के बाद अध्ययन छोड़कर उन्हें अपने पिता के व्यवसाय में शामिल होना पडा। तब उनकी अवस्था 12 वर्ष की थी। उनका विवाह 1898 में उन्नीस वर्ष की अवस्था में 13 वर्ष की नागम्माल से हुआ, अपनी पत्नी को भी उन्होंने अपने विचारों में दीक्षित किया और पुरानी रूढ़ियों से आजाद कराया।

उनकी एक पुत्री जो इस विवाह से जन्मी थी वो मात्र पांच माह की अवस्था में गुजर गयी। उसके बाद उनकी कोई संतान नहीं हुई। दुर्भाग्य से उनका दाम्पत्य भी अधिक लंबा न रहा, और जल्द ही नागम्माल की मृत्यु हो गई। बहुत बाद के वर्षों में 1948 में पेरियार ने दूसरा विवाह किया, जब वे 74 वर्ष के थे और मनिम्माल 26 वर्ष की थीं। उनकी दूसरी पत्नी का उनके काम को आगे बढाने में खासा योगदान रहा है।

पेरियार की मात्रभाषा कन्नड़ थी, लेकिन तमिल और तेलुगु पर भी उन्हें खासा अधिकार था। बचपन से ही वे अपने परिवार में वैष्णव संतों के उपदेश और प्रवचन सुनते आये थे, और धर्म के आधार पर होने वाले शोषण और भेदभाव के मूल कारणों को उन धार्मिक सिद्धांतों में उन्होंने बहुत पहले ही ढूंढ निकाला था। बहुत आरम्भ से ही वे उन ढकोसलों का उपहास उड़ाया करते थे और स्वयं के लिए एक तर्कशील (रेशनल) पद्धति का आविष्कार उन्होंने कर लिया था। ये तर्कशीलता आजीवन उनके साथ रही।

यह तर्कशीलता और बेबाकी उनके लिए मुसीबत भी बनी, 1904 में अपने पिता से अनबन के चलते उन्होंने घर त्याग दिया और 1904 में वे विजयवाड़ा, हैदराबाद, कोल्काता और काशी के अपने प्रसिद्ध प्रवास पर निकल पड़े। इसी क्रम में काशी में उनके साथ एक भयानक अपमानजनक वाकया हुआ जिसके कारण उनकी सोच पूरी तरह बदल गयी, और हम जिस क्रांतिकारी पेरियार को जानते हैं उसका जन्म हुआ।

अपने काशी प्रवास के दौरान, प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर में उन्होंने बहुत सारे पाखण्ड और भेदभाव देखे। उस समय न उनके पास पैसे थे ना कोई ठिकाना ही था, भ्रमण के दौरान उन्होंने मुफ्त भोजन पाने के लिए एक ब्राह्मण धर्मशाला का रुख किया। लेकिन वे खुद ब्राह्मण न थे सो एक जनेऊ धारण करके उन्होंने भोजन पाने का प्रयास किया। किन्तु द्वारपाल ने उन्हें अपमानित करके सड़क की ओर धकेल दिया। इस अपमान और भूख से परेशान युवा पेरियार को बहुत दुःख हुआ और अंततः उन्हें सड़क किनारे पडी जूठी पत्तलों से भोजन चुनना पडा।

इस भांति भोजन करते हुए उनकी नजर धर्मशाला की दीवार पर पडी जहां लिखा था कि एक दक्षिणी गैर ब्राह्मण धनिक ने इस धर्मशाला का निर्माण करवाया है, तब उनका खून खौल उठा और वे सोचने लगे कि उस द्रविड़ सज्जन के दान से बनी धर्मशाला में भी अगर उनका अपमान होता है, तो ऐसा धर्म और ऐसा समाज किसी भी सम्मान का अधिकारी नहीं हो सकता।

ये ठीक वैसी ही घटना है जैसी ज्योतिबा फूले और आंबेडकर के साथ उनके जीवन में होती है। वर्ण या जाति के आधार पर इस भेदभाव ने उन्हें अंदर तक हिलाकर रख दिया था। तभी वे एक निर्णय लेते हैं कि इस धर्म को त्यागकर एक नास्तिक की भांति आजीवन संघर्ष करेंगे और धर्म, जाति, लिंग, भाषा और प्रजाति के आधार पर चल रहे भेदभाव को उखाड़ फेकेंगे।

इस घटना के बाद उन्होंने एक धनिक व्यापारी होते हुए भी पूरा जीवन गरीबों और मजलूमों की सेवा में लगाया। उनकी सेवाभावना इतनी प्रगाढ़ थी कि अपने गाँव में फैले प्लेग के दौर में बीमारों की सहायता के लिए उन्होंने अपने जीवन की भी चिंता न की। और अन्य धनिकों को प्रेरित कर प्लेग पीड़ितों के लिए धन जुटाया और उनकी मदद की।

उनकी इन विशेषताओं को बड़ा सम्मान मिला और उनकी मानवता के प्रति निष्ठा और समर्पण देखते हुए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने मानद मजिस्ट्रेट भी बनाया। इसी तरह वे कई अन्य महत्वपूर्ण पदों पर भी रहे और एक व्यापक ढंग से समाज और समाज की समस्याओं को बहुत नजदीक से देख पाए। इस यात्रा में उनके कई विद्वान् और क्रांतिकारी मित्र बने और कई मार्गों से उन्होंने देश में जमे हुए भेदभाव को उखाड़ने का प्रयास किया।

एक उल्लेखनीय प्रसंग जो उनकी एक और विशेषता जाहिर करता है वो ये है कि सामाजिक ढकोसलों को नकारते हुए उन्होंने अपनी बाल-विधवा बहन का पुनर्विवाह कराया, जो उस समाज में उस समय के लिए एक बड़ी बात थी।

आगे उन्होंने जो आन्दोलन खड़े किये और एक भेदभाव रहित समाज की रचना के प्रयास किये उनमे वाईकोम सत्याग्रह (1924-25), आत्मसम्मान आन्दोलन (1925) प्रमुख रहे। वर्ष 1929-32 के दौरान उन्हें यूरोप और रशिया भ्रमण के अवसर मिले और एक नयी राजनीति और समाज निर्माण की उनकी समझ में व्यापकता आई। जस्टिस पार्टी और आगे चलकर द्रविड़ कषगम पार्टी की स्थापना (1944) इसी का नतीजा थी। दक्षिण भारत की राजनीति में एक नयी इबारत लिखते हुए उन्होंने भाषा, धर्म, वर्ण, जाति और लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव को उखाड़ फेंकने के लिए जन-संगठन और व्यापक जन-जागरण किया, भारत के इतिहास में इस काम की मिसाल ढूंढना मुश्किल है।

अंतिम रूप से हम उनसे क्या सीख सकते हैं? ये एक बड़ा सवाल है। निश्चित ही उनकी सारी प्रस्तावनाओं को जस का तस नहीं लिया जा सकता, लेकिन जिन मूल्यों के आधार पर उन्होंने संघर्ष किया वे मूल्य ग्रहण करने योग्य हैं। बहुत स्पष्ट शब्दों में कहें तो इस देश में ब्राह्मणवाद से जन्मे भेदभाव का विरोध ही उनके कर्तृत्व की चालिका शक्ति थी।

ब्राह्मण और अ-ब्राह्मण में जैसा भेद और शोषण है, वो उन्हें मंजूर न था। ठीक इसी तरह दलित और महिलाओं का शोषण भी उन्हें स्वीकार नहीं था। इसीलिये वे एक सशक्त दलित राजनीति के पर्याय बन गए। तमिल भाषा और द्रविड़ प्रजाति के सम्मान पर अतिआग्रह से जन्मे उनके स्वर विशेष रूप से अलगाववादी कहे जा सकते हैं। इनसे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है। किन्तु अगर किसी भी आधार पर शोषण और दमन बना रहे और शोषक समाज इससे बाहर जाने का रास्ता न देता हो, तो अलगाव एक सहज चुनाव बन ही जाता है।

हालाँकि आज के समय में भाषा, जाति या प्रजाति के आधार पर अलग देश या अलग धर्म मांगना - दोनों ही किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकते। फिर भी अलगाव की संभावना शोषक और शोषित दोनों को एक नए और परस्पर सम्मानजनक विकल्प पर सहमति बनाने का अवसर देती है।
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