
दोस्तोएवॉस्की ने
कहा था कि अगर ईश्वर नहीं है, तो हमें उसका आविष्कार करना होगा, नहीं तो हर कोई हर कुछ करने के लिए स्वतंत्र हो जाएगा। इस महान रूसी लेखक की
मृत्यु के 130 साल बाद भी नास्तिक इससे
सहमत नहीं हो पाए हैं। बल्कि पिछले कुछ वर्षों से उनकी गतिविधियां कुछ तेज हुई
हैं। इसके पीछे रिचर्ड डॉकिन्स की पुस्तक ‘द गॉड डेल्यूजन’ नाम की अत्यंत पठनीय किताब की भी कुछ भूमिका हो सकती है। यह किताब पहली बार 2006 में प्रकाशित हुई थी और तब से लगातार इंटरनेशनल बेस्टसेलर बनी हुई है। यह
ईश्वर के अस्तित्व को आदमी की खामखयाली साबित करनेवाली दर्जनों पुस्तकों की सिरमौर
है।
मेरे पास पैसा होता, तो मैं इस पुस्तक का अनुवाद संसार की हर भाषा में करवाता और आधी कीमत पर लोगों
को उपलब्ध करवाता। दिलचस्प यह है कि इस पुस्तक की एक प्रति मुझे इंग्लैंड के एक
पादरी ने उपहारस्वरूप भिजवाई थी। उन्हें पता है कि मैं नास्तिक हूं। फिर भी
उन्होंने मेरे लिए यही किताब चुनी तो इसे उनकी विनोद वृत्ति का ही उदाहरण मानना
चाहिए। इससे उनकी यह आश्वस्ति भी झलकती है कि ऐसी किताबें ईश्वर का क्या बिगाड़
लेंगी!
नास्तिक भी इस बात
को जानते हैं। इसलिए वे नास्तिकता का प्रचार-प्रसार करने के लिए दूसरे रास्ते
खोजने लगे हैं। ब्रिटेन में नास्तिकों की एक संस्था ने शहर भर की बसों में यह नारा
पेंट करवा दिया है - ईश्वर शायद नहीं है। इसलिए चिंता करना छोड़ें और अपने जीवन का
आनंद लें। (यहां शायद अंग्रेजी के परैप्स का नहीं, प्रोबेबली का अनुवाद है।) इस अभियान के लिए जितने चंदे की उम्मीद की गई थी,
उससे ज्यादा पैसा आया।
लंदन में यह अभियान इतना जबरदस्त साबित हुआ कि यूरोप के
दूसरे देशों जर्मनी, इटली,
फिनलैंड, स्पेन आदि तथा में भी
नास्तिक बसें दिखाई देने लगीं। संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ शहरों में भी ये बसें
चलीं,
पर कनाडा की सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। अब नास्तिकों की यह संस्था इस
अभियान के लिए चंदा नहीं ले रही है। उसने एक व्यापक मानववादी अभियान की योजना बनाई
है,
जिसके लिए 50,000 पाउंड चंदा जमा
करने का लक्ष्य तय किया गया है। अभी तक करीब 10,000 पाउंड प्राप्त हो चुका है।
हो सकता है,
भारत के कुछ उदार लोग भी इन चंदादाताओं में हों। ऐसे लोगों से और उनसे जिनके
पास सार्वजनिक कामों पर खर्च करने के लिए पैसा है, मैं निवेदन करूंगा कि वे भारत में भी ऐसे विज्ञापन प्रकाशित करने की ओर ध्यान
दें।
भारत में नास्तिकता की बहस एक जमाने में बहुत गंभीरता से शुरू हुई थी। तब के
कम्युनिस्ट सचमुच नास्तिक होते थे और यह साबित करने के लिए वे बहुत कुछ करते थे
तथा कुछ और भी करने के लिए तैयार रहते थे। पर अब वे अपने वोटरों को नाराज नहीं
करना चाहते और मूर्ति पूजा के धार्मिक आयोजनों में उत्साहपूर्वक हिस्सा लेते हैं।
ध्यान देने की बात है कि मूर्ति पूजा का विरोध ऐसे लोग भी करते आए हैं जो परम
आस्तिक थे। जैसे स्वामी दयानंद। स्वयं महात्मा गांधी ने न कभी मूर्ति पूजा में
दिलचस्पी दिखाई और न इसे प्रोत्साहित किया। यह हमारी खुशकिस्मती है कि हमारे पहले
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू घोषित रूप से नास्तिक थे। लेकिन स्वयं उनके परिवार
में भी यह परंपरा नहीं बन पाई।
भगत सिंह एकमात्र क्रांतिकारी थे,
जिन्होंने हिम्मत के साथ ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ जैसी ताकतवर पुस्तिका लिखी। यह पुस्तिका पिछले तीस सालों से बार-बार छापी जाती
रही है। दुख इस बात का है कि भगत सिंह के इस घोषणापत्र का जैसा असर होना चाहिए था,
वह दिखाई नहीं पड़ रहा है। भारत जैसे-जैसे परिपक्व हो रहा है,
उसके प्रबुद्ध नागरिक धार्मिक कर्मकांडों में उतना ही ज्यादा शामिल हो रहे है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रक्रिया को चुनौती देने के लिए नास्तिकता के पक्ष में कैंपेन
चलना आवश्यक लगता है।
जब यूरोपीय समाज
जैसे तर्कशील और जाग्रत समुदाय में ईश्वर का बोलबाला बना हुआ है और वहां के लोगों
को नास्तिकता की बस जैसे अभियान चलाने की जरूरत महसूस हो रही है,
तो भारत की तो बात ही क्या है! यहां तो लोग आज भी अपने ‘
दैहिक, दैविक,
भौतिक’ ताप शांत करने के लिए
धर्मगुरुओं के सुझाव पर बंदरों को केला और गायों को गुड़ खिलाते हैं,
शनि महाराज की पूजा करते हैं और दरगाहों पर चादर चढ़ाते हैं।
मजे की बात है कि
इस वर्ग में शिक्षित, बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक भी शामिल हैं। मकान की नींव रखते समय तो शिला पूजन और
कोई बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग करने के पहले नारियल फोड़ना वगैरह तो सरकार के तत्वावधान
में भी होता है। इस समय भारतीयों के जीवन में पंचांग और ज्योतिष का दखल जितना बढ़
गया है,
उतना शायद पहले कभी नहीं रहा होगा। ऐसी स्थिति में वास्तविक रूप से शिक्षित
तथा चिंतनशील वर्ग का कर्तव्य क्या है, क्या यह दुहराने की जरूरत है?
मेरा अपना मानना यह
है कि ईश्वर है या नहीं, इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर वह है भी, तो उससे हमें कोई सहायता नहीं मिलती, क्योंकि दी हुई परिस्थिति का सामना तो हमें अपनी बुद्धि और संसाधनों से ही
करना होता है। ईश्वर नहीं हो, तो अपने पुरुषार्थ पर हमारा भरोसा अपने आप बढ़ जाता है।
जहां तक ईश्वर को
प्रसन्न करके कुछ प्राप्त करने या अपने कर्मों के परिणामों से बचने की जुगत का
सवाल है,
तो इस मामले में हमारे समय के सबसे महान आस्तिक महात्मा गांधी की राय मुझे
बहुत भाती है। उनका कहना था कि मैं कभी नहीं चाहूंगा कि मुझसे खुश हो कर ईश्वर
मुझे मेरे कर्मों की सजा न दे। जो भक्ति से प्रसन्न हो कर अपने नियम तोड़ने के लिए
जाना जाता हो, ऐसे ईश्वर से यह उम्मीद कौन
कर सकता है कि वह सृष्टि का संचालन न्यायपूर्वक कर रहा होगा?
– राजकिशोर
यह लेख विचारार्थ ब्लॉग से लिया गया है, जहाँ यह ‘चलो नास्तिक बनें’ शीर्षक से
प्रकाशित किया गया है।