डार्विन आज भी क्यों तर्कशील लोगों के लिए सबसे बड़े प्रेरणा स्रोत हैं?


दुनिया के सभी धर्मग्रंथों में यह स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि मानव सहित सृष्टि के हर चर और अचर प्राणी की रचना ईश्वर ने अपनी इच्छा के अनुसार की। प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध वर्णन से भी स्पष्ट होता है कि प्राचीनकाल में मनुष्य लगभग उतना ही सुंदर व बुद्धिमान था जितना कि आज है। 

पश्चिम की अवधारणा के अनुसार यह सृष्टि लगभग छह हजार वर्ष पुरानी है। यह विधाता द्वारा एक बार में रची गई है और पूर्ण है। ऐसी स्थिति में किसी प्रकृति विज्ञानी (औपचारिक शिक्षा से वंचित) द्वारा यह प्रमाणित करने का साहस करना कि यह सृष्टि लाखों करोड़ों वर्ष पुरानी है, अपूर्ण है और परिवर्तनीय है, कितनी बड़ी बात होगी। इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। 

ईश्वर की संतान या ईश्वर के अंश मानेजाने वाले मनुष्य के पूर्वज वानर और वनमानुष रहे होंगे, यह प्रमाणित करनेवाले को अवश्य यह अंदेशा रहा होगा कि उसका हश्र भी कहीं ब्रूनो और गैलीलियो जैसा न हो जाए।

उन्नीसवीं सदी के पहले दशक में प्रख्यात चिकित्सक परिवार में जनमे चार्ल्स डार्विन ने चिकित्सा का व्यवसाय नहीं चुना। हारकर उनके पिता ने उन्हें धर्माचार्य की शिक्षा दिलानी चाही, पर वह भी पूरी नहीं हो पाई।

बचपन से ही प्राकृतिक वस्तुओं में रुचि रखनेवाले चार्ल्स को जब प्रकृति विज्ञानी के रूप में बीगल अनुसंधान जहाज में यात्रा करने का अवसर मिला, तो उन्होंने अपने जीवन को एक नया मोड़ दिया।
समुद्र से डरनेवाले तथा आलीशान मकान में रहनेवाले चार्ल्स ने पाँच वर्ष समुद्री यात्रा में बिताए और एक छोटे से केबिन के आधे भाग में गुजारा किया। जगह-जगह की पत्तियाँ, लकड़ियाँ, पत्थर, कीड़े व अन्य जीव तथा हडड्डियाँ एकत्रित की।

उन दिनों फोटोग्राफी की व्यवस्था नहीं थी। अतः उन्हें सारे नमूनों पर लेबल लगाकर समय-समय पर इंग्लैंड भेजना होता था। अपने काम के सिलसिले में वे दस-दस घंटे घुड़सवारी करते थे और मीलों पैदल भी चलते थे। जगह-जगह खतरों का सामना करना, लुप्त प्राणियों के जीवाश्मों को ढूँढ़ना, अनजाने जीवों को निहारना ही उनके जीवन की नियति थी।

गलापागोज की यात्रा चार्ल्स के लिए निर्णायक सिद्ध हुई। इस द्वीप में उन्हें अद्भुत कछुए और छिपकलियाँ मिलीं। उन्हें विश्वास हो गया कि आज जो दिख रहा है, कल वैसा नहीं था। प्रकृति में सद्भाव व स्थिरता दिखाई अवश्य देती है, पर इसके पीछे वास्तव में सतत संघर्ष और परिवर्तन चलता रहता है।

लंबी यात्रा की थकान अभी उतरी भी नहीं थी कि चार्ल्स ने आगे का अन्वेषण तथा उस पर आधारित लेखन आरंभ कर दिया। बहुत थोड़े से लोगों ने उनका हाथ बँटाया। समस्त कार्य चार्ल्स को स्वयं ही करना पड़ा।

श्रेष्ठ वैज्ञानिकों का कार्यस्थल आमतौर पर कोई प्रतिष्ठित संस्था या शिक्षा केंद्र ही रहा है। अरस्तू से लेकर न्यूटन, फैराडे तक को कोई-न-कोई रॉयल सोसाइटी, रॉयल संस्थान आदि मिल ही गया था, जो काम और काम के खर्च दोनों में हाथ बँटाता था। परंतु डार्विन ने अपना कार्य ग्रामीण इलाके के दूर दराज स्थित मकान में शुरू किया। अपनी पैतृक संपत्ति के रूप में प्राप्त सारा धन उन्होंने इस कार्य पर लगा दिया। जिस प्रकार का काम वे कर रहे थे, उसमें न तो कोई पैसा लगाने के लिए आगे आया और न ही चार्ल्स ने इसके लिए विशेष प्रयास ही किए।

उनके मस्तिष्क में जीवोत्पत्ति का सिद्धांत जन्म ले चुका था। सन् 1844 में उन्होंने इसे विस्तार से कलमबद्ध भी कर लिया था, पर इसे प्रकाशित करने की कोई जल्दी उन्होंने नहीं दिखाई; क्योंकि इसकी भावी प्रतिक्रिया का उन्हें एहसास था। इसलिए वे इसमें कोई कमी या गुंजाइश रहने देना नहीं चाहते थे। वे लगातार प्रयोग-दर-प्रयोग करके उसे प्रमाणिक करते चले गए।

वे धैर्यपूर्वक लिखते रहे। उनकी रचनाएँ तेजी से पाठकों के हाथों में आती रहीं। संभवतः वे कुछ वर्ष और इंतजार कर लेते, पर वालेंस के अनुसंधान का परिणाम देखकर, उन्हें भी अपना सिद्धांत सार्वजनिक करना पड़ा। हालाँकि उनके पास पुख्ता प्रमाण थे कि वे निष्कर्ष पर पहले पहुँचे थे, पर उन्होंने वालेस को बराबर का सम्मान दिया।

तत्कालीन समाज में उनके सिद्धांत पर जोरदार बहस हुई। ईश्वर की संतान माना जानेवाला मानव वानर की संतान माना जाने लगा। इसे मानव के पतन की संज्ञा दी गई। राजशाही से लेकर चर्च तक सभी तिलमिला गए, पर डार्विन जरा भी विचलित नहीं हुए। सभी प्रकार की प्रतिक्रियाओं को वे पूरी विनम्रता से स्वीकार करते रहे। अथक परिश्रम से किए गए प्रयोगों के परिणामों की शुद्धता के आगे उठनेवाला भारी विरोध दूर भागता चला गया और अंततः लुप्तप्रजातियों की तरह विलुप्त हो गया।

डार्विन ने जीवन के हर पहलू पर प्रयोग किए। उन्होंने पत्तों, फूलों, पक्षियों, स्तनपायी जीवों-सभी को अपने प्रयोगों के दायरे में लिया। अपने मित्र माइकेल फैराडे द्वारा विकसित विद्युत जेनरेटर का प्रयोग करके उन्होंने विभिन्न मानसिक स्थितियों का चेहरे पर पड़नेवाले प्रभाव का अध्ययन किया और उस पर आधारित पुस्तक की रचना की। इसमें उनके कुत्ते बॉब ने उन्हें भरपूर सहयोग दिया और उन्हें बतलाया कि भूख लगने पर, गुस्सा होने पर तथा प्रसन्न होने पर उसकी मुखमुद्रा कैसे बदलती है।

दुनिया को मांसाहारी पौधों के बारे में ज्ञान देनेवाले चार्ल्स डार्विन ने निरीह केंचुओं के व्यापक योगदान पर भी प्रकाश डाला और उन्हें सामाजिक सम्मान दिलवाया। उनके योगदान को प्रमाणिक करने के लिए उन्होंने गणित का भी सहारा लिया; हालाँकि वे न्यूटन व गैलीलियो की तरह गणित में दक्ष नहीं थे, पर वे अपने सिद्धान्तों को अनेक दृष्टिकोणों व तरीकों से परखना जानते थे।

स्वभाव से विनम्र, परिश्रमी धैर्यवान्, साहसी तर्कसंगत विचारोंवाले, कलम के धनी चार्ल्स डार्विन आज भी दुनिया के श्रेष्ठतम वैज्ञानिकों में से एक और न्यूटन आइंस्टान आदि के समकक्ष माने जाते हैं। तत्कालीन समाज में उनका विरोध हुआ और होता रहा, पर उनके सिद्धांत का विकल्प कोई नहीं दे पाया।

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