यह एक तथ्य है कि प्राचीन काल से ही भारत और दुनिया के अन्य देशों में नास्तिक
रहे हैं। भारत में गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, चार्वाक आदि प्रमुख नाम हैं, जिनके
नाम पर भारतीय दर्शन की एक अलग ही शाखा है। आधुनिक काल में भी भारत में पेरियार,
ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, डॉ. भीमराव आंबेडकर, शहीद भगत सिंह, राहुल
संकृत्यायन आदि जैसे लोग रहे हैं, जो युवाओं तथा सामाजिक सुधारकों के बीच लोकप्रिय
भी हैं।
लेकिन भारतीय समाज के सत्तासीन लोगों ने उन्हें कभी अधिक महत्व नहीं दिया।
बुद्ध ने भी ईश्वर पर बात करने से मना कर दिया था और जीवन के दुःख दूर करने की बात
करते थे। शायद उनको अहसास हो कि ईश्वर की सार्वजनिक नहीं मानने की घोषणा से, लोग
उनसे दूर जायेंगे।
धार्मिक आडम्बरों पर भारत में आज भी कई
त्योहार मनाये जाते हैं।
कई त्योहार और दिवस कहने को तो त्योहार हैं, पर उनके ज्यादातर कार्य-व्यवहार समाज
में नफ़रत और अंधश्रद्धा फ़ैलाने वाले होते हैं।
ऐसे में तर्क पर आधारित त्योहार मनाने की जरुरत है, जो इन नफरती तथा आडम्बरी
त्योहारों के लिए एंटी-थीसिस की तरह कार्य कर सकें।
भारत ही नहीं, अन्य देशों में भी कट्टरता और
अंधश्रद्धा की कोई कमी नहीं है। पाकिस्तान
में तो ईश्वर की आलोचना अपराध है और उसके लिए कड़ी सजा का प्रावधान भी है। बांग्लादेश में नास्तिक और गैर-धार्मिक लोगों, खासकर
ब्लॉगरों के विरुद्ध इसी प्रकार हिंसात्मक प्रदर्शन तथा फांसी की मांग 2015 में की जा रही थी।
सोचने की बात है, जो लोग धर्म को शान्ति का मार्ग कहते नहीं अघाते हैं, उनका
व्यवहार कैसे एक पल में बदल जाता है? कैसे धर्म के नाम पर लोग दंगा और मारपीट के
लिए उतारू हो जाते हैं?
नास्तिक ब्लॉगरों को फांसी की मांग करते कट्टर धार्मिक लोग। तस्वीर 'अथीस्त रिपब्लिक' से साभार। |
इस कड़ी में 'नास्तिक दिवस' अथवा 'तर्कशील दिवस' मनाने की बहुत ज़रूरत है। इस दिन तर्क और
वैज्ञानिक चिंतन के महत्व पर चर्चा-गोष्ठी आदि का आयोजन तर्कशील तथा नास्तिक लोगों
द्वारा किया जा सके। इसकी शुरुआत 2019 में कुछ लोगों ने इस घोषणा
से की है कि मार्च 23 को नास्तिक दिवस मनाया जायेगा।
अभी नास्तिक दिवस ठीक से लोकप्रिय भी नहीं हुआ है, लेकिन भक्तों और नास्तिकता की ओट में छिपे
छद्म नास्तिकों की परेशानी बढ़ने लगी है। वे कह रहे हैं कि नास्तिक दिवस मनाने से
तो यह भी धर्म हो जाएगा। उन्हें इसकी समझ नहीं है कि नास्तिक दिवस अंधश्रद्धा,
पूजा-पाठ, भक्ति और आडंबर के लिए नहीं मनाया
जाना है। वह इस लिए मनाया जाना है कि नास्तिकों पर हो रहे हमले रुकें, दुनिया समाज के नास्तिकों का मेलजोल हो पाए और वे एकजुट होकर सुरक्षित
महसूस करें। अपनी नास्तिकता का इज़हार करने से डरें नहीं और समाज में उनकी स्वीकृति
बढ़े। उन्हें भी सामान्य इंसान समझा जाए, अनैतिक और पाप करने
वाला नहीं।
महिला दिवस अथवा वैलेंटाइन दिवस मनाने से महिला
धर्म नहीं बन जाता अथवा प्रेम अंधश्रद्धा या धर्म नहीं बन जाता। महिला के अधिकारों
तथा प्रेम को महत्व देने के लिये ऐसे आयोजन किये जाते हैं। इसमें कोई गलत बात नहीं
है। वैसे ही नास्तिकों के अधिकारों,
उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी तथा सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए
नास्तिक दिवस के रूप में एकजूट होना ज़रूरी है।
नास्तिक होने का अर्थ मानवीय मूल्यों में
अविश्वास नहीं है।
महिला दिवस अथवा वैलेंटाइन दिवस मनाने से महिला
धर्म नहीं बन जाता अथवा प्रेम अंधश्रद्धा या धर्म नहीं बन जाता। महिला के अधिकारों
तथा प्रेम को महत्व देने के लिये ऐसे आयोजन किये जाते हैं। इसमें कोई गलत बात नहीं
है। वैसे ही नास्तिकों के अधिकारों,
उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी तथा सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए
नास्तिक दिवस के रूप में एकजूट होना ज़रूरी है।
मतलब प्रेम में विश्वास करने, मानवीय मूल्यों की तरफदारी करने और मूर्ति
पूजने में कोई फर्क नहीं है?