फ्रांसिस बेकन ने जब मिथकों के खिलाफ झंडा
बुलंद किया तो घोषणा की थी कि साइंस इंसानियत को भविष्य में ले जाएगा। इस बात को
कोपरनिकस, गेलिलियो और खास तौर से न्यूटन
ने गंभीरता से लिया। इसके बाद पश्चिम ने विज्ञान पैदा किया।
बाद में समाजशास्त्र और एंथ्रोपोलॉजी ने मिथकों
को नए ढंग से पढ़ना समझना शुरू किया और "मिथकों का विज्ञान" खोज निकाला।
इधर भारत में न बेकन जन्मे न न्यूटन जन्मे।
नतीजा ये कि हम साइंस पैदा नहीं कर सके। अब पश्चिमी साइंस हमने उधार तो ले लिया,
लेकिन उस साइंस को साइंटिफिक ढंग से इस्तेमाल करने की बुद्धि विकसित नहीं कर पाए।
पश्चिम ने जिस तरह "साइंस" और
"साइंस ऑफ मिथ" पैदा किया, भारत ने साइंस की नसबंदी करते हुए "मिथ
ऑफ साइंस" पैदा किया। आज हम इसी दौर में जी रहे हैं।
केन विलबर्स ने ठीक ही लिखा है, जिन समाजों ने विज्ञान और लोकतन्त्र के
जन्म की प्रसव पीड़ा खुद नहीं झेली, उन्हें उधार में मिले विज्ञान और लोकतन्त्र की
न तो समझ है, न तमीज है। वे विज्ञान और लोकतंत्र को भी झाड़ फूंक की तरह ही
इस्तेमाल करते हैं।
– संजय श्रमण की वाल से साभार