मैं
भी जन्म से आस्तिक था। मंगलवार का व्रत रखता था। हनुमान चालीसा पढता था। मन्दिर
में जाता था तो मूर्ती के सामने साष्टांग दंडवत करता था। मैं और मेरी पत्नी अपनी
शादी के बीस दिन बाद ही आदिवासियों की सेवा करने के मक़सद से दिल्ली छोड़ कर बस्तर
के जंगल में जाकर एक झोंपड़ी बना कर रहने लगे। हमने आदिवासियों की शिक्षा,
स्वास्थ्य, रोज़गार के लिए अट्ठारह साल काम
किया। हमारी संस्था धीरे धीरे बढ़ती गई और हमारे कार्यकर्ताओं की संख्या दो सौ पचास
हो गई।
इसी
बीच निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण का दौर
शुरू हो गया। बड़े देशों की पूंजी गरीब देशों के खानिज और संसाधनों को लूटने के लिए
टूट पडीं। गरीब देशों के भ्रष्ट नेता और अफसर चंद पैसों के लालच में अपने देशों की
ज़मीनें, जंगल, खनिज और समुन्द्र तट
कम्पनियों को सौंपने लगे।
अपनी
ज़मीनों की लूट का विरोध करने वाले आदिवासियों और किसानों पर पुलिस और सुरक्षा बलों
के द्वारा गोलियां चलवाना, जेलों में ठूंसना
उनकी औरतों से बलात्कार करवाने के काम सरकारें करवाने लगीं।
जहां
हम काम कर रहे थे जब उन आदिवासियों की ज़मीनों को छीनने के लिए सरकार ने आदिवासियों
के साढ़े छह सौ गाँव जला दिये, हजारों
नौजवानों का कत्ल किया, निर्दोष आदिवासियों और मानवाधिकार
कार्यकर्ताओं को जेलों में डाल दिया गया।
तब
मुझे ईश्वर के होने पर शक़ होने लगा। मैंने देखा कि ज़ालिम जीतता है और बेक़सूर मारा
जाता है। बेक़सूर की कोई पूजा प्रार्थना सुनने वाला कोई है ही नहीं। पुलिस वालों ने
बलात्कार करते समय लड़कियों के निप्पल दांतों से काट दिए और उन्हें नक्सली कह कर
जेलों में ठूंस दिया। पुलिस वालों काकुछ नहीं बिगड़ा और आदिवासी तकलीफें ही झेलते
जा रहे हैं।
मैं
और मेरी पत्नी इन आदिवासियों को बचाने के लिए लड़ रहे थे। हम राष्ट्रीय मानवाधिकार
आयोग,
राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय को लिख रहे थे। हम सरकार और पुलिस के
खिलाफ कोर्ट में मुकदमें कर रहे थे। सरकार के ज़ुल्मों का विरोध करने की वजह से
सरकार ने हमारी आर्थिक मदद रुकवा दी, हमारे साथियों को जेलों
में डाला जाने लगा।
अन्त
में भाजपा सरकार ने हमारे सात एकड़ में फैले आश्रम पर बुलडोज़र चला दिया और मेरी
पांच बार हत्या की कोशिश करी। आखिरकार जिस रात मेरे घर में घुस कर पुलिस मुझे मार
डालने वाली थी अपनी लड़ाई जारी रखने के लिए मुझे छत्तीसगढ़ छोड़ना पड़ा।
उसके
बाद मैं कुछ समय दिल्ली में रहा फिर हिमाचल में आकर रहने लगा।
इस
सब में मेरा ईश्वर से विश्वास पूरी तरह उठ गया। इस बीच मुझे जे कृष्णमूर्ती को
पढने का मौक़ा मिला। उससे अपनी धारणाओं और दिमाग के सोचने के तरीके को ठीक से समझ
गया।
आज
मेरी दोनों बेटियाँ और पत्नी सहित किसी का कोई भरोसा किसी धर्म या किसी ईश्वर में
नहीं है। हमारे घर में किसी भगवान, गुरु
या किसी भी तरह की मूर्ती या कलेंडर नहीं है।
इसी
के साथ साथ परिवार हर तरह के अंधविश्वास से आज़ाद हो गया। अब हम आत्मा,रूह, भूत जिन्न,चुड़ैल, शुभ या अशुभ दिन शुभ मुहूर्त जैसे मूर्खतापूर्ण सोच से आज़ाद हैं। पिछ्ले
साल मेरे पिता की मृत्यु हुई तो उनके शव का अंतिम संस्कार करने की बजाय मेडिकल
कालेज को दे दिया गया।
कुछ
लोग कहते हैं कि नास्तिक लोग दुष्ट और पापी होते हैं। मैंने और मेरी पत्नी ने पूरा
जीवन समाज के लिए लगाया। कोई पैसा नहीं कमाया आज तक हमने अपना कोई ज़मीन नहीं खरीदी
ना कोइ मकान बनाया। आज भी किराए के मकान में रहते हैं।
नास्तिक
बनने के बाद हमारा ध्यान अब इस दुनिया की तरफ ज़्यादा जाता है। हम पृकृति की
सुन्दरता,
पर्यावरण को बचाने आस पास के लोगों और जीव-जंतुओं
पर ज्यादा ध्यान देते हैं। मेरी पत्नी हर साल ज़रूरतमंदों को गर्म कपडे खरीद कर
बांटती है, गरीब बच्चों को पढ़ाई का सामान खरीद कर दिलवाती है।
मेरी दोनों बेटियाँ भूखे और बीमार कुत्तों और बूढ़ी गायों और छोड़ दिए गये बैलों को
खाना खिलाने और उनका इलाज करवाती हैं। गऊ माता को भगवान मानने वाले लोग मेरी
बेटियों से झगड़ा करते हैं कि तुम इन जानवरों को यहाँ घर के आस पास क्यों आने देती
हो?
असल
में धर्म आपको यह मौका देता है कि आप दुनिया के सारे गलत काम कर के भी नमाज़ और
पूजा करके अच्छे बने रह सकते हैं। जैसे राष्ट्रवाद आपको यह मौका देता है कि आप
अपने देश के दलितों मुसलमानों और आदिवासियों को मार कर सिर्फ भारत माता की जय बोल
दीजिये तो आप देशभक्त हो गये।
इसे
मैं फर्ज़ी धर्म और फर्ज़ी राष्ट्रवाद कहता हूँ और मेरा विश्वास इन दोनों पर बिलकुल
भी नहीं है। बल्कि मैं मानता हूँ जब इंसान इन दोनों से आज़ाद होगा तभी असली
इंसानियत का जन्म होगा।
– हिमांशु कुमार
लेखक
गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे आदिवासियों के अधिकारों के हित में बात करने
के लिए जाने जाते हैं। वर्तमान में वे हिमाचल प्रदेश में रहते हैं।