‘धर्म’ शब्द कहते ही हमारे दिमाग में शब्द आता है - ‘भगवान’। अलग अलग धर्म बताते हैं कि भगवान तक कैसे पहुँचा जाए, आत्मा और परमात्मा क्या है इत्यादि। इसलिए यह बात सुनने में अजीब लग सकती है कि किसी धर्म ने भगवान के बारे में कुछ अधिक कहा ही नहीं। बौद्ध और जैन धर्मों के साथ ऐसा ही है।
बुद्ध ने कभी ये नहीं कहा कि भगवान है, और ना ही कभी सीधे सीधे ये कहा कि भगवान नहीं है। वे नहीं चाहते थे कि इस सवाल के चक्कर में पड़ा जाए। बुद्ध का दर्शन आस्तिकों और नास्तिकों, दोनों के लिए है। लेकिन उनके दर्शन में से मोती लेने के बजाए आस्तिक उन्हें आस्तिक कहने पर तुले हैं। उन्हें आस्तिक कहने पर ही क्या, उन्हें खुद भगवान बना दिया गया है। और नास्तिक उन्हें नास्तिक साबित करने पर तुले हैं।
यह ज़िद केवल आज नहीं, यह बुद्ध के वक़्त पर भी थी। मालुंकयपुत्त भिक्षु बुद्ध के पास पहुँचे और कहा कि जो चौदह बिना जवाब के प्रश्न हैं, उनका उत्तर दें, नहीं तो मैं आपकी सीख को ही छोड़ दूँगा। ये चौदह प्रश्न संसार के अनादि होने या ना होने (eternal or not), अनंत होने या ना होने (infinite or not), इंसान के शरीर और आत्मा के अलग होने ना होने, और मृत्यु के पश्चात जीवन की आशंका से संबंधित हैं। बुद्ध ने इसके जवाब में एक उदाहरण दिया है, वह इस प्रकार है।
किसी आदमी को एक ज़हरीला तीर लगा। उसके परिजन उसे वैद्य के पास लेकर गए ताकि तीर निकाला जाए और उसके दर्द को ख़त्म किया जाए। लेकिन वह इंसान इस बात पर अड़ गया कि मैं तीर तब नहीं निकलवाऊँगा जब तक मुझे यह ना बताया जाए कि तीर किसने चलाया? क्या वह ब्राह्मण था, क्षत्रिय था या व्यापारी? उसका रंग कैसा था? उसका कद कितना था - लंबा था या छोटा? वह तीर सीधा था या मुड़ा हुआ था? जिस धनुष से तीर चला, वह धनुष किस चीज़ से बना था? उसकी प्रत्यंचा कौनसे पदार्थ से बनी थी? और इस तरह वह आदमी तीर के ज़ख्म और दर्द के साथ ही मर जाता है। और इन सवालों का जवाब उस वक़्त भी उसके पास नहीं होता।
इसलिए ना तो बुद्ध को पूरी तरह आस्तिक कहा जा सकता है, और ना ही नास्तिक। फिर भी अगर आपको उन्हें कोई शब्द देना ही है तो आप उन्हें संशयवादी या अज्ञेयवादी (agnostic) कह सकते हैं।
परंतु गौतम बुद्ध चाहते हैं कि आप इन प्रश्नों को छोड़कर पहले अपना तीर निकालें, अपने दुःख का अंत करें।।