मैं सुधीर प्रजापति, उम्र 44 साल,
पेशे से इंजीनियर हूँ और नाइजीरिया में रहता हूँ। शुरुवात से ही मैं अपने पिता
श्री के सानिध्य में रहा, जो काफी तार्किक और आध्यामिक मिज़ाज़ के हैं। लेकिन
सामाजिक वातावरण मानसिक गुलामी से फलाफूला होने से धार्मिक पाखंडो में सना होना लाजिमी
था।
बावजूद इसके मेरा दिमाग हमेशा इन किवदंतियों को समझने और तार्किक द्रष्टिकोण अपनाने व वास्तविकता जानने के लिए उत्साहित रहता था। बचपन में ही हमारे आसपास जय अर्जक के प्रणेता माननीय स्व. श्री रामस्वरूप वर्मा जी का आंदोलन चला, जो काफी समय तक जेहन में रहा। बाद में युग प्रणेता पेरियार, ललई सिंह, महात्मा फुले व बाबा साहेब को पढ़ने का अवसर मिला।
बावजूद इसके मेरा दिमाग हमेशा इन किवदंतियों को समझने और तार्किक द्रष्टिकोण अपनाने व वास्तविकता जानने के लिए उत्साहित रहता था। बचपन में ही हमारे आसपास जय अर्जक के प्रणेता माननीय स्व. श्री रामस्वरूप वर्मा जी का आंदोलन चला, जो काफी समय तक जेहन में रहा। बाद में युग प्रणेता पेरियार, ललई सिंह, महात्मा फुले व बाबा साहेब को पढ़ने का अवसर मिला।
इन महापुरुषों का मेरे ऊपर
बहुत असर रहा। चाहे पेरियार हों या महात्मा फुले, ललई सिंह हों या बाबा साहेब, सभी
ने अपने जीवन में धर्म और ईश्वर के नाम पर व्याप्त कुरीति को न केवल झेला था,
बल्कि उसके विरुद्ध आन्दोलन चलाया था। उनके आन्दोलन से भारत का एक बड़ा तबका जो
अधिकतर उत्पीड़ित-शोषित थी और जिन्हें बहुत सारे अधिकार प्राप्त नहीं थे, जैसे
शिक्षा, आपसी मेलजोल, बराबरी, न्याय आदि को जगाने में मदद मिली।
ये सभी महापुरुष तर्कवादी थे
तथा ईश्वर जैसी सत्ता में यकीन नहीं करते थे। इनको पढ़ने से मैं भी तर्कशील बनने की
दिशा में आगे बढ़ा। मुझमें भी हिम्मत आई अंधश्रद्धा को चुनौती देने की और सही गलत
में फर्क करने की। इस तरह से मैं भी धीरे धीरे तर्कशील और नास्तिक बन गया।
इसके अतिरिक्त और कई चीजें
सामने आई जिनमें प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह व अनार्य भारत
चैनल (शकील प्रेम जी) से इन पाखंडो को समझने व तर्कशील बनने में बहुत मदद मिली और लगभग जिंदगी में सोचने का तरीका ही बदल गया।
“आज मेरे हिसाब से जो
किवदंतियों में फंसे हैं, वे आस्तिक हैं और जो वास्तविकता समझते हैं व चीजों को जानकर मानते हैं वो नास्तिक हैं।”
– सुधीर प्रजापति
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