बलवंत भोरिया: मैं नास्तिक क्यों हूँ?






आस्तिक होना बहुत आसान व सरल काम है, मगर नास्तिक होना उतना ही कठिन है। एक नास्तिक बहुत ही धैर्यवान, साहसी, तर्कशील, वैज्ञानिक व व्यावहारिक सोच वाला इंसान तथा मानवीय मूल्यों के प्रति सजग होता है। आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, मोक्ष, पाप-पूण्य, पूजा-अर्चना, धर्म-अधर्म आदि शब्द नास्तिक के शब्दकोष में होते ही नहीं।

नास्तिक एक आजाद, स्वच्छंद, मानवतापूर्ण विचारों वाला एक सम्पूर्ण, कर्मशील महामानव होता है। जीव व वनस्पति के प्रति मानवतावादी बर्ताव व उसका रख-रखाव एक नास्तिक का पहला और अंतिम उद्देश्य होता है। दान-दक्षिणा न देकर कर्महीन को कर्मशील बनाता है व कर्म करने में ही मग्न रहता है। नास्तिक किसी शक्ति के भय या किसी लोभ-लालच में आकर काम नही करता। इसलिए मैं एक नास्तिक को महामानव मानता हूँ।

मेरे नास्तिक होने के पीछे मेरा ऐसा मानना है कि दूनिया में आजतक के इतिहास में जितना मानवता का विनाश व कत्लेआम हुआ है, वो सब भगवान-अल्लाह जैसे आदि व हिंदु, मुसलमान व ईसाई आदी धर्म के नाम पर ही हूआ है और आज भी समाज इन्हीं के कारण  अलग अलग धडों में बंटकर एक-दूसरे को मारे काटे जा रहे है। ऐसा करने वाले सारे के सारे आस्तिक हैं, न कि नास्तिक। इसलिए नास्तिक होना विश्व-शांति का प्रतीक है।

आज तक के वैज्ञानिक खोजों का श्रेय भी नास्तिकों को ही जाता है, जबकि आस्तिकों का मानवता के विकास में कोई योगदान नहीं है। उल्टा मनगढ़ंत भय दिखा कर उन्होंने मानव को डरपोक व मांगने की प्रवृति वाला अंधविश्वासी व अवैज्ञानिक बना डाला।

 – बलवंत भोरिया

तस्वीर प्रतीकात्मक Atheist Alliance International से साभार। 

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नोट: इस लेख में व्यक्त किये गए विचार इसके लेखक के अपने हैं इसलिए जरुरी नहीं है कि 'नास्तिक भारत' भी उनके विचार से सहमत हो। 
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