क्या 'नास्तिकता' भारतीय संस्कृति का अंग रहा है या पाश्चात्य प्रभाव?


नास्तिकता या अनीश्वरवाद वह सिद्धांत है जो जगत् की सृष्टि करने वाले, इसका संचालन और नियंत्रण करनेवाले किसी भी देवी-देवता अथवा ईश्वर के अस्तित्व को मान्यता नहीं देता है।  ज़्यादातर नास्तिक किसी भी देवी-देवता, अलौकिक शक्ति, धर्म, आत्मा आदि को नहीं मानते हैं। भारतीय दर्शन में नास्तिक शब्द उनके लिये भी प्रयुक्त होता है, जो वेदों को ईश्वरीय मान्यता नहीं देते।

भारत में नास्तिकता कोई नई बात नहीं है। सदियों से भारत में नास्तिकों की परंपरा रही है। बुद्ध, महावीर, चार्वाक आदि को नास्तिक परंपरा के अन्तर्गत माना जाता है। यह बात अलग है कि आज बौद्ध और जैन धर्म में भी ईश्वरीय जैसी संकल्पना आ गई है। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के अन्तर्गत बुद्ध को अलौलिक जैसा माना जाने लगा है। अपवादों को छोडकर मूर्ति पूजा बौद्ध और जैन दोनों में आम हो चला है। दूसरी तरफ, लोकायत दर्शन और चार्वाक की परंपरा के लोग बहुत कम हैं। भारतीय दर्शन के अन्तर्गत ही सांख्य दर्शन भी ईश्वर को मान्यता नहीं देता है।

हिंदू धर्म, जो भारत के अधिकांश लोगों का धर्म है, में नास्तिकता को आध्यात्मिकता के लिए एक वैध मार्ग माना जाता है। आजकल नास्तिक का अर्थ अधिकांश भारतीय लोग, अनैतिकता से लेते हैं। जो एक ठीक धारणा नहीं है। नैतिकता और अनैतिकता का संबंध व्यक्ति के व्यवहार और चरित्र से है, नास्तिक-आस्तिक से नहीं। अगर ऐसा होता तो, ईश्वर में विश्वास जैन धर्म और बौद्ध धर्म में आवश्यक हो जाता। ये दोनों भारतीय उपमहाद्वीप में ही पैदा हुए हैं, लेकिन आज उनका स्वरूप और विश्वास में बदलाव आ गया है।

2011 की जनगणना के अनुसार, एक प्रतिशत से भी कम लोग भारत में नास्तिक हैं। हालांकि 2012 के विन-गैलप ग्लोबल इंडेक्स ऑफ रिलीजन एंड एथिज़्म रिपोर्ट के अनुसार, 81 प्रतिशत भारतीय धार्मिक थे, 13 प्रतिशत धार्मिक नहीं थे, 3 प्रतिशत नास्तिक थे, और 3 प्रतिशत अनिश्चित थे या जवाब नहीं दे रहे थे।

ये आंकड़े कितने सही है इसपर बहस संभव है, क्योंकि आज भी जनगणना के धर्म वाले कॉलम में नास्तिकता का विकल्प भारत के नागरिकों को अभी तक उपलब्ध नहीं है। भारत में इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में आदिवासी और वामपंथ की विचारधारा को मानने वाले लोग रहते हैं। उनमें बहुत से लोग ईश्वर की संकल्पना को स्वीकार नहीं करते। आदिवासियों के लिए भी जनगणना के धर्म वाले कॉलम में आदिवासी, सरना, अनिमिस्ट, प्रकृति-पूजक आदि जैसे विकल्प आज़ादी के बाद से खत्म कर दिये गए हैं।

भारत में नास्तिकता, अनीश्वरवाद और अज्ञेयवाद तीन प्रकार के विभाजन ईश्वर और धर्म के आधार पर रहे हैं। इन तीनों को हम यहाँ एक ही श्रेणी में मानकर सबको नास्तिक कह रहे हैं। इसके अलावा आधुनिक काल में पेरियार और भगत सिंह बड़े ही लोकप्रिय शख्सियत हुए हैं। पेरियार ने ईश्वर को मानने वालों की बड़ी कड़ी आलोचना की है, जबकि भगत सिंह ने तार्किक तरीके से अपने नास्तिक नहीं होने के कारण के बारे में दलील दी है। भगत सिंह की प्रसिद्ध पुस्तिका जो एक लेख है मैं नास्तिक क्यों हूँशीर्षक से है, तथा भारत में नास्तिकों के बीच सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला साहित्य है।

आज इंटरनेट और सोशल मीडिया के आ जाने से नास्तिकता का भारत में बहुत ज्यादा प्रचार-प्रसार हुआ है। यह बात फेसबूक और यू-ट्यूब पर ढ़ेर सारे पेज, ग्रुप व चैनल की संख्या को देख कर अंदाज लगाया जा सकता है। महाराष्ट्र में अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अन्तर्गत भी नरेंद्र दाभोलकर और श्याम मानव ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किए हैं।

इसके अतिरिक्त पंजाब में तर्कशील सोसाइटी के नाम से भी कई संगठन कार्य कर रहे हैं, जो तर्कशील सोच और नास्तिकता को बढ़ावा दे रहे हैं तथा अंधश्रद्धा पर प्रहार कर रहे हैं। आजकल सोशल मीडिया पर नास्तिकों के लिए तर्कशील शब्द भी विकल्प के तौर पर उपयोग में लाया जाने लगा है। ऐसा शायद इसलिए है कि भारतीय मानस नास्तिकता को बड़ा नकारात्मक शब्द मानता है और इससे बचने के लिए ही लोग तर्कशील शब्द का धड़ल्ले से नास्तिकता प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।

उपरोक्त संदर्भों और विवरणों के देखते हुए बहुत साफ है, कि नास्तिकता भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है। यह कोई पश्चिमी देशों का अंधानुकरण नहीं है। यह जरूर है कि वर्तमान में इंटरनेट और सोशल मीडिया के कारण व्यापक रूप से यह दिखने लगा है। लेकिन आज भी भारतीय संविधान और सरकार ने धर्म के कॉलम में नास्तिकता लिखने का विकल्प नहीं दिया है, हालांकि आप हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध अथवा जैन लिख कर अपनी पहचान जाहिर कर सकते हैं।

स्थिति तो यहाँ तक आ गयी है कि आज नास्तिक होना जिनमें बड़ी संख्या में दलित और वामपंथी हैं, उनको कट्टर दक्षिणपंथी लोग अपना निशाना भी बना रहे हैं। नास्तिकों की गलती यह है कि वे अपनी विचारधारा, तर्कशीलता और धर्म के कट्टर स्वरूप की कटु आलोचना करते हैं। ऊपर का चित्र (द प्रिंटसे साभार) जो दाभोलकर, पानसारे, कलबूर्गी और गौरी लंकेश की हैं, इन सबकी हत्याओं के पीछे वही धार्मिक कट्टरता है, जो उनकी धर्म और आडंबर की आलोचना को झेल नहीं पाई और हिंसा का सहारा लेकर दमन का प्रयास किया।

लेकिन हुआ यह कि आडंबर, धार्मिक कट्टरता, पाखंड आदि के विरुद्ध अपनी बात रखने वाले नास्तिकों और तर्कशील लोगों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। कहते हैं न, “किसी प्रगतिशील विचार को आप हिंसा द्वारा समाप्त नहीं कर सकते।


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