एयर
फोर्स में बचपन बीतने के कारण पता ही नहीं था कि हमारा समाज किस तरह जातिवाद का
शिकार है। ऊँची जाति में जन्म के कारण भी कभी वो कड़वाहट देखने को न मिली, जो कई
लाख लोगों की जिंदगी का हिस्सा है। जो हर रोज उन्हें नीचा होने के अहसास से रूबरू
करवाता है।
बड़े होने
पर प्रेम हुआ एक चमार जाति के इंसान से। शादी हुई उसके बाद देखी एक नई दुनियाँ। एक
ऐसी दुनियाँ जहाँ कई लोगो को उस अपमान से रोज, हर पल गुजरना होता था। पतिदेव और
उनका परिवार बहुत बेहतर स्थिति में थे, समाज की।
साथ ही
पिताजी भी कई सालों से समाज के लिए काम कर रहे थे। खैर उनसे तो मिलने का सौभाग्य
प्राप्त नही हुआ, पर माताजी और पारिवारिक पृष्ठभूमि ने जरूर दिखाया कि कितना लड़
रहे हैं वो, उस समता के लिए जो समाज देने को तैयार ही नहीं।
तब मुझे
लगा कि कैसे भगवान हैं, जो किसी को जन्म से छोटा या बड़ा बना देता।
मेरे को
तो कोई भी नही दिखा जो मेरे पतिदेव से बड़ा हो सोच में। इंसानियत में तो वो किसी
पर्टिकुलर जाति में पैदा होने से कैसे कमतर हो सकते हैं। यह मेरी जिंदगी का
टर्निंग पॉइंट था। फिर बुद्ध की एक बात बहुत पसंद आई मुझे कि “अपना दीपक खुद
बनो”।
बस हम
अपना दीपक खुद बन गए। हमने वो सभी लकीरें मिटा दी जो हमें छोटा बनाती थी। कोई
ईश्वर नही है, मैं हूँ और मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ और मुझे ही बेहतर होना है। नास्तिकता
खुद से बेहतर होने की लड़ाई है। नास्तिकता प्रेम की कुंजी है। नास्तिकता एक होने का
प्रतीक है, मेरे लिए। इसलिए मैं नास्तिक हूँ। मैं विनीता हूँ।
– विनीता
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