हमारे लिए अस्पताल हैं, लेकिन उन निरीह जानवरों का क्या?



इस दुनिया में आना ही एक दुःख है, एक दर्द है। कुछ दुःख और दर्द ऐसे हैं जो हमारी नजरें देख नहीं पाती, और अगर देख भी लें तो महसूस करना फ़िज़ूल सा लगता है। हरेक की पसंद अलग-अलग होती है। किसी को फिल्में देखना पसंद होता है, तो किसी की टीवी के धारावाहिको में जान अटकी रहती है। वहीं कुछ लोगों की पसंद इन सबसे इतर डिस्कवरी जैसे चैनल भी होते हैं।
  
कभी-कभी जब फिल्मों के काल्पनिक दुनिया से मन ऊब-सा जाता है, तो मैं भी डिस्कवरी की दुनिया में अपना सुकून तलाशने लगती हूँ। इसी दौरान मैंने एक ऐसा परिदृश्य देखा जिसने मुझे गहराईओं से सोचने पर मजबूर कर दिया। कई सवाल मुझे बेचैन करने लगे।

हम खुद को इंसान कहते हैं। भगवान् की गाथाओं का वर्णन, उनकी दयालुता का वर्णन, उनकी करुणा का वर्णन करते हम कहाँ थकते हैं? लेकिन उस हिरन के लिए भी कोई दयालु, करुण भगवान् है? जो शेरों के एक झुण्ड के बीच में अपनी जान बचाने की जद्दोजहद में है। शायद नहीं...!!

शेरों के बच्चे उसे ज़िंदा ही नोचने लगते हैं। भूख इस कदर हावी हो चुकी है कि दया, करुणा सिर्फ किताबी भाषा लगने लगती है। जिन्दा खाये जाने का दर्द शायद कोई इंसान कभी न समझ सके। ज़िन्दगी से लड़ते लड़ते उन जीवों के लिए मौत किसी वरदान से कम नहीं होती होगी। आपके या मेरे लिए तो अस्पतालों के दरवाजे भी खुले हैं, लेकिन उन बेचारे नीरीह जानवरों का क्या?

अगर इंसान ऐसी तकलीफ से गुजरता है, तो पाप और पुण्य पर सारा ठीकरा फोड़ दिया जाता है। लेकिन क्या कोई बता सकता है कि कौन से पाप की ऐसी दर्दनाक सजा मिलती है? क्या कोई पुण्य इन बेजुबान जानवरों के लिए भी मयस्सर है?

जंगल में मौत पाप पुण्य नहीं देखती। बस भूख होती है और भूख के लिए सब कुछ जायज है वहाँ। शायद ज़िंदा नोच डालना भी।

इंसान भी इनसे अलग नहीं है। दर्द यहाँ भी है। पैदा हुए तो माँ को दर्द। जब मरे तो सभी जानने वालों को दर्द। अपने परिवार के लिए दो वक़्त की रोटी न जुटा पाने का दर्द। बुढ़ापे की सर्द सर्दियों को अकेले झेलने का दर्द। इन सभी दर्दो के बीच न तो मुझे कहीं ईश्वर, अल्लाह दिखे न ही उनकी कहीं रहमदिली देख पाती हूँ।  ..या फिर ईश्वर शायद रहमदिल है ही नहीं..!!

  – आसमा भारत

  तस्वीर प्रतीकात्मक यू-ट्यूब से साभार  

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