किसी बच्चे पर उसके अभिभावक या परिवार का धर्म बचपन से थोपा जाना उसके
अधिकारों का हनन है। ऐसा क्यों है जानिए ये कारण –
(1) जब
बच्चे का जन्म होता है तब उसका कोई धर्म नहीं होता है। जिस परिवार में जन्म होता
है उस परिवार का धर्म बच्चे का धर्म बन जाता है।
(2) धर्म
पसंद करने में किसी को स्वतंत्रता नहीं मिलती है। व्यक्ति कहता ये मेरा धर्म है,
वास्तव में वो धर्म उसने खुद सोच समझकर पसंद नहीं किया है। हाल की
हमारी समाज व्यवस्था में उसके पास कोई विकल्प ही नहीं रखा गया है। बड़े होने के
बाद लोग उस धर्म को अपना धर्म मान लेते है।
(3) होना तो ये चाहिए कि हरेक व्यक्ति को स्वतंत्रता दी जाय कि वह 21 साल की उम्र का बाद सोच समझकर काफी स्टडी करने के बाद अपना धर्म पसंद करे। उसके पहले व्यक्ति धर्म के बगैर जी सकता है। जैसे पति / पत्नी के बगैर जीते हैं। उसके बाद भी व्यक्ति को कोई धर्म पसंद ना आये तो नास्तिक बन सकता है।
(4) आज की स्थिति में भी कंई लोग किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं और खुद को नास्तिक घोषित कर देते हैं। ऐसे करने का उसे पूरा अधिकार है। समाज या राष्ट्र व्यक्ति पर जोर जबरदस्ती नहीं कर सकता है कि भाई, क्यों तुम्हारा कोई धर्म नहीं है?
(5) जन्म के
समय हमारा कोई धर्म नहीं था, और आज भी हम कोई धर्म का पालन
करना नहीं चाहते हैं तो हम ऐसा कर सकते हैं। नास्तिक होना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार
है।
(6) ये में
इसलिए बता रहा हूँ कि काफी लोग ऐसे हैं जो नास्तिक तो बन गये हैं लेकिन डरते हैं।
किसी को बताते नहीं कि हम नास्तिक है। नास्तिक होना कोई बुरी बात नहीं है। हिंमत
से घोषित करो कि हम नास्तिक है।
(7) आजकल
धर्म का नशा ज्यादा हो रहा है। पिछले पच्चीस साल में धार्मिक कार्यक्रमों में
व्रृद्धि हुई है। गणेशोत्सव, नवरात्रि, रथयात्रा, यज्ञ, कथा, सेवा पूजा, मंदिर निर्माण सब में व्रृद्धि हुई है।
धार्मिक लोगों को धर्म का प्रचार प्रसार करने का जितना अधिकार है उतना ही अधिकार
नास्तिक को अपनी विचारधारा का प्रचार प्रसार करने का है।
(8) इसलिए हक्क से अपने
विचार रखिए। उसके समर्थन में दलील पेश किजिए। नास्तिकता के समर्थन में बोलते रहिए।
लिखते रहिए। पढते रहिए। नास्तिकता का प्रचार करना हमारा अधिकार है और फर्ज भी है
क्योंकि लोगों में वैज्ञानिक सोच का विकास करना संविधान के मुताबिक हम सबका फर्ज
है। और फर्ज निभाने में कैसा डर?
लेखक: रेशनलिस्ट अनिल
Image: Orion Cohen