क्यों कहते थे राहुल सांकृत्यायन कि ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’

  

अनुभवों से सीखने की क्षमता से और किसी भी पद्धति कि कोई औपचारिक शिक्षा नहीं लेने वाले एकमात्र महापंडित बने राहुल सांकृत्यायन। उनके जीवन परिचय से ज्ञात होता है कि उनकी शिक्षा केवल मिडिल स्कूल तक ही हुई थी। तर्कशील और मानवतावादी विचारों से प्रेरित होने से ही उनकी यात्रा का क्रम एक सामान्य सनातनी ब्राह्मण परिवार के केदारनाथ पाण्डेय से आर्य समाजी परिव्राजक दामोदर साधु, एक बौद्ध विद्वान के रूप में राहुल सांकृत्यायन और साम्यवाद के सामाजिक चिन्तक का है

उनके जीवन का परिचय देना इतना आवश्यक नहीं है जितना की उनके क्रांतिकारी विचारों का परिचय देना आवश्यक है। उन्होनें अपने समग्र लेखन में ईश्वर, कर्मकाण्ड, रूढ़िवाद, जाति-व्यवस्था एवं अन्धविश्वास पर कड़ा प्रहार कियाथा जन्म से वे एक सनातनी ब्राह्मण परिवार के थे, किन्तु रूढ़िवाद के कट्टर आलोचक थे। वे लगभग 30 भाषाओं के जानकार थे।

उन्होंने समाजशास्त्र, धर्म, आध्यात्म, दर्शन, साम्यवाद, इतिहास, भाषा-विज्ञान एवं संस्कृति जैसे अनेक विषयों पर अनेक किताबें लिखी। उनकी कुछ किताबें प्रकाशित है और कुछ अभी भी अप्रकाशित ही हैं।

उनकी विशेषता यह है कि वे किसी भी विचारधारा के बंधन से मुक्त एक स्वतंत्र चिंतक हैं। अपने जीवन यात्रा के अनेक विध पहलुओ को स्पष्ट करते हुए वे मज्झिम निकाय में आगत भगवान बुद्ध के उद्धरण उद्धृत करते है कि “बड़े की भाँति मैंने तुम्हें उपदेश दिया हैं, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिए नहीं- तो मालूम हुआ कि जिस चीज़ को मैं इतने दिनों से ढूँढता रहा हूँ, वह मिल गयी

उनके तर्कशील और मानवतावादी विचारों को प्रतिपादित करते हुए वे कहते है कि भागो नहीं दुनिया को बदलो! हमें अपनी मानसिक दासता कि बेड़ी कि एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार रहना चाहिए। बाहरी क्रान्ति से ज्यादा जरूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे पीछे दाहिने बायें दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रूढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा

जीवन के अंतिम दिनों में उनका झुकाव कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों की ओर हुआ। उनकी मान्यता यह थी कि रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैंक्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं होते। सनातनी ब्राह्मण परिवार में जन्म होने बावजूद भी उनके विचारों में ईश्वरवाद का खण्डन परिलक्षित होता है

अज्ञान का दूसरा नाम ही ईश्वर है। हम अपने अज्ञान को साफ स्वीकार करने में शरमाते हैंअतः उसके लिए संभ्रांत नाम 'ईश्वरढूंढ निकाला गया है। ईश्वर-विश्वास का दूसरा कारण मनुष्य की असमर्थता और बेबसी है।लोगों को इस बात का जोर से प्रचार करना चाहिए कि धर्म और ईश्वर गरीबों के सबसे बड़े दुश्मन हैं।

अपनी किताब वोल्गा से गंगा में वह कहते है कि अकल से मारे हुये की जड़ता के पाँच लक्षण होते है; यथा – 

  1. बुद्धि के ऊपर वेद (पोथी) को रखना
  2. संसार का कर्ता ईश्वर को मानना
  3. धर्म की इच्छा से ही स्नान करना
  4. जन्म जाति का अभिमान करना और
  5. पाप नाश के लिए शरीर को कष्ट देना

वर्तमान राजनीति में मजहब एक मुख्य बिन्दु बन गया है; मजहब के नाम पर होने वाली राजनीति  आलोचना भी उनके विचारों का एक पक्ष है। उनकी दृष्टि में गरीबी, अशिक्षा, बेकारी का कोई मजहब नहीं होता है और इंसानियत से बड़ा कोई मजहब हो भी नहीं सकता।

उनके विचार में मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’- इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटीदाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पामाल क्यों हैंपुराने इतिहास को छोड़ दीजिएआज भी हिंदुस्तान के शहरों और गांवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा हैंऔर कौन गाय खाने वालों को गोबर खाने वालों से लड़ा रहा है।

असल बात यह है कि मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को सिखाता है भाई का खून पीना।

वे कहते हैं, हिंदुस्तानियों की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगीबल्कि मजहबों की चिता पर। कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इसका कोई इलाज नहीं है!

– शुभमचित्त

(लेखक पी-एच.डी. शोधार्थी हैं।)

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