जब बतौर
इंसान हमारा जन्म होता है, हममें केवल दो ही डर होते हैं- शोर और ऊंचाई का डर। इसके
अलावा बाकी सारे डर अनुभवों से आते हैं। ऐसा ही एक डर हैं 'ईश्वर और धर्म'। हम ऐसे वातावरण में पलते-बढ़ते हैं कि जहां ज्यादातर लोग
ईश्वर के डर से ग्रसित हैं। कल्पनाओं से लिखी गई अवास्तविक कहानियों को बचपन से ही
दिमाग में ठूस दिया जाता हैं। डर पैदा कर दिया जाता है।
तर्क करने का मौका ही नहीं दिया जाता।
हर बच्चा
जन्मजात नास्तिक ही होता है, और तब तक नास्तिक रहता है, जब तक उसका दिलो-दिमाग उलजलूल
धार्मिक बातों से, मनगढ़ंत कहानियों और ईश्वर के डर से नहीं भर दिया जाता। बहुत
ही कम लोग हैं जो आगे चलकर इन सब बातों से उपर उठकर तर्क करना सीखते हैं,
ऐसे सभी लोगों का मैं हार्दिक अभिवादन करता हूं।
कॉलेज
में आने के साथ ही कुछ ऐसी परिस्थितियां पैदा हुईं कि मैं मानवीय भेदभावों,
ऊंच-नीच, सामाजिक ढांचे और महिलाओं कि सामाजिक स्थिति को लेकर सोचने
पर मजबूर हो गया। बाबासाहब को पढ़ा, भगतसिंह के बारे में पढ़ा, बुद्ध के बारे में जाना
और भी विषयक साहित्य पढ़े।
मुझे
मेरे सवालों के जवाब मिलने लगे थे। मुझे मालूम हो चला था कि जो धर्म एक इन्सान के
दूसरे इन्सान के प्रति प्रेम को धर्म, जाति, लिंग के नाम पर उसे अप्राकृतिक बताकर तोड़ रहा है,
वहीं धर्म दूसरी ओर मानव शरीर पर हाथी का सिर लगाने को,
उस शरीर की सवारी चूहे को बताने,
उड़ते बंदर का पूरा पहाड़ उठाने एवं सूर्य के निगल जाने को,
सेब खाने से संतान प्राप्ति, जन्म-पुनर्जन्म, स्वर्ग-नर्क जैसी कई बातों को प्राकृतिक बताकर सदियों से
लोगों को मानसिक गुलाम बनाये हुए हैं।
जो जिंदा
है उसे मालूम नहीं कि स्वर्ग और नर्क कहां है,
जो मर गया है
वह बता नहीं सकता कि स्वर्ग और नर्क हैं भी या नहीं। बहुपत्नी प्रथा, देवदासी प्रथा, विधवाओं का सती प्रथा, महिलाओं का व्रत-उपवास, बाल-विवाह भी इसी की देन हैं, जो कि समाज को और खासकर महिलाओं को बुरी तरह जकड़े हुए हैं।
ये सारी
प्रथाए लैंगिक ऊंच-नीच और जातिगत भेदभावों कि पोषक हैं,
प्रेमपूर्ण समाज एवं राष्ट्र के निर्माण में बाधारुप हैं।
आज के समाज में भी बलात्कार के बाद लड़की को जला देना,
दहेज के नाम पर की गई शारिरिक और मानसिक यातनाएं हमारे जेहन
में 'सीता की अग्निपरीक्षा' और 'होलिका दहन' की तस्वीरें फिर बयान कर जाती हैं।
एक ओर
औरतों को यातनाएं दी जाती हैं, अधिकारों से वंचित रखा जाता है,
डायन घोषित कर
मारा जाता है, रोज़ न जाने कितनी अग्निपरीक्षाएं देने पर मजबूर किया जाता
है, वहीं दूसरी ओर उसे देवी के रुप में पूजा जाता है,
सराहा जाता
हैं। कितना दोगला है यह व्यवहार! मालूम होता है कि ईश्वर हमेशा उन लोगों जैसा व्यवहार करता है जिन लोगों ने ईश्वर
की रचना की हैं। और वही लोग दूसरे लोगों पर अपने ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारने
का दबाव बना रहे हैं, डर पैदा कर रहे हैं!
वैसे,
एक बात कहना चाहूंगा आप सबसे,
कि ईश्वर का कोई दोष नहीं है, उसने कुछ भी नहीं किया है, क्योंकि वो हैं ही नहीं, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। अगर ईश्वर है भी,
तो उसका मनसूबा उस व्यक्ति के बराबर है जिसका कोई मनसूबा ही
नहीं है। ईश्वर धुंधले बादलों के ऊपर नहीं,
धुंधले
दिमागों के भीतर रहता है! और रही बात धर्म की, वो तो उस खेल कि भांति है जिसमें दो बच्चे 'किसका काल्पनिक मित्र श्रेष्ठ हैं'
वाली बात को लेकर बहस पर उतरते हैं और आगे चलकर यही बहस
उनको आपस में लडवा देती है। इसीलिए संगठित धर्म इन्सानियत के लिए बहुत ख़तरनाक
हैं।
मैं
मानता हूं कि हर प्रकृतिवादी व्यक्ति नास्तिक हो या न हो,
हर नास्तिक
जाने-अंजाने प्रकृतिवादी होता ही है, कम-से-कम आस्तिकों के मुकाबले तो ज्यादा ही! क्योंकि नास्तिक आस्तिकों कि तरह धर्म,
श्रद्धा और त्योहार मनाने के नाम पर खानें की चीजों को
अग्नि या नदी के पानी में डालकर वह चीजों को व्यर्थ और पानी को दूषित नहीं करता,
पत्थर पर किसी दूसरे पशु के दूध का अभिषेक करके उसे बरबाद
नहीं करता।
धर्म की
बातों में न फंसने का एकमात्र उपाय हैं- शिक्षा। शिक्षित होना पड़ेगा,
तर्कपूर्ण
किताबें पढ़नी होंगी, सदियों से चली आ रही कहानियों की सच्चाई तलाशनी होगी,
प्रश्न उठाने
पड़ेंगे, ज्ञान-विज्ञान में अग्रसर होना पड़ेगा। जरा सोचिए,
धार्मिक
भेदभाव को लेकर शुरू की गई दो देशों के बीच की लड़ाई भी परमाणु ऊर्जा का डर दिखाकर
या उसके उपयोग से खत्म की जाती है, कोई अल्लाह-भगवान-ईसा मसीह या गीता-कुरान-बाईबल के बलबूते
पर नहीं।
बच्चों
को सवाल करने की आज़ादी देनी होगी, और उन्हें सवालों का 'लॉजिकल' हल देना होगा, 'मैजिकल' नहीं। उन्हें दया, प्रेम, शांति और करुणा के पाठ पढ़ाने होंगे।
आप सभी
से और खासकर महिलाओं से अनुरोध है कि व्रत की एवं अन्य व्यर्थ किताबें पढ़ने कि
बजाय संविधान पढ़ें, अपने अधिकारों को जानें और जीवन को बेहतर बनाएं। घर्म के
ठेकेदारों के झांसे में ना आएं, उन्हें सबक सिखाएं। उनसे कहें कि देश कोई
गीता-रामायण-कुरान से नहीं, परंतु संविधान से चलता है।
धर्म-जाति
के नाम पर राजनीति न होने दें, करनेवालों की छुट्टी किजीए। तर्कशील राष्ट्र निर्माण में वह
हमारा महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। जिस क्षण धर्म और ईश्वर का डर खत्म होगा, उस क्षण से एक संपूर्ण आजाद सोच का- ‘नास्तिकता’
का आरंभ होगा, और वही सही मायनों में आजादी हैं।
नास्तिक
होना एक क्रांतिकारिता जरूर है, मगर उसका दायित्व निभाना उतना ही कठिन,
क्योंकि समाज में परिवर्तन की जिम्मेदारी नास्तिकों की बन
जाती है। अपनी जिम्मेदारी निभाकर ही भगतसिंह और बाबासाहब के सपनों का एकजुट भारत
बन पायेगा।
नास्तिकता
कि तरह इन्सानियत भी जन्मजात है, उसके लिए कोई पूजा-पाठ की जरूरत नहीं है। और,
इन्सानियत एक गुण है, उसे गुण ही रहने दें, धर्म घोषित करने कि कोशिश न करें। आपस में प्रेम का वातावरण
बनाएं रखें, उसी से सारे भेद दूर होंगे और भाईचारा रहेगा।
इन्सानियत
के लिए,
एकता के लिए, तर्कपूर्ण समाज के लिए, ज्ञान एवं वैज्ञानिक विचारधारा और बदलाव के लिए, सच्ची
आजादी की दिशा में मेरी बात रखने का मौका देने के लिए 'नास्तिक भारत' का आभार!
– जय वर्मा
लेखक परिचय:
उम्र 21 साल,
ईन्टर्न डॉक्टर, तर्कवादी, नास्तिक, शांतिप्रिय, नया पढ़ने-जानने का शौकीन और प्रेम में विश्वास रखकर खुद ही
अपने निर्णय लेकर हर परिणाम की तैयारी रखनेवाला एक आज़ाद इन्सान। लेखक से varmajay.123456@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।
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