भारत में तर्कशील आन्दोलन कोई नया
नहीं है। प्राचीन काल से चार्वाक, बुद्ध जैसे लोग तर्कशीलता पर तथा आडम्बर के
विरोध में बात करते रहे हैं। मध्यकालीन भारत में कबीर ने तो अंधश्रद्धा पर कदा
प्रहार किया। आधुनिक काल में पेरियार, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, भगत सिंह,
राहुल संकृत्यायन, आंबेडकर आदि कितने ही लोग हुए हैं, जो भारत से आडम्बर, जाति-व्यवस्था,
कर्मकाण्ड को जड़ से ख़त्म कर देना चाहते थे, लेकिन भारत है कि बार-बार कर्मकांड और
अंधश्रद्धा के चंगुल में जकड़ जाता है।
आज हम
यहाँ साझा कर रहे हैं, एक ऐसे ही महापुरुष का लेख जिन्होंने तर्कशीलता को एक
नया आयाम दिया और धर्ममुक्त अभियान की शुरुआत की। वे अपने वेबसाइट में ‘धर्ममुक्त’
के बारे में लिखते हैं, "धर्ममुक्त एक
स्वतंत्र विचारधारा है, जो कि नास्तिकतावाद और मानवतावाद का मिश्रण है। हमारा
उद्देश्य मानव समाज को वास्तविक मानव बनाने का है, जो
कि ईश्वर, धर्म, अंधविश्वास, पाखंड, कर्मकांड, भेदभाव
से मुक्त होकर प्रेम और सत्य के मार्ग का अनुसरण करे।" शहीद भगत सिंह और
नास्तिकता दिवस को समर्पित पढ़िए आज उनका खास आलेख।
― सम्पादक, नास्तिक भारत
मित्रों
मैं भी बाकी सब लोगों की तरह बचपन से धार्मिक था, परन्तु एक साधारण भक्त से थोड़ा कम।
इसका कारण तो मैं भी नहीं जानता कि ऐसा क्यों था। मुझे किसी भी तरह की पूजा पाठ में शिरकत करना बहुत नागवार गुजरता था।
अपने समाज के बाकी युवाओं की तरह बाबा साहब की विचारधारा व
तथागत गौतम बुद्ध के विचार मुझे आकर्षित करते थे।
मैंने भी प्रण कर लिया था कि मैं हिन्दू रहकर तो नहीं
मरूंगा।
फिर क्या
था हो गई दुश्मनी भक्तों के भगवान और धर्म से, और मुझे मिल गया अपने जीवन का उद्देश्य,
कि चलो इसके साथ ही समाज को भी एकजुट करने का मौका मिलेगा।
इसी दरमियान मेरे पिताजी ने धर्म परिवर्तन करके बौद्ध धर्म
अपना लिया वे बन गए बौद्ध भंते। उनके क्रियाकलाप देखकर मेरे दिमाग में 440 वोल्ट का झटका लगा। कि कल तक वे ब्राह्मण पुजारी के कर्मकांड पर समाज को प्रवचन
देते थे आज स्वयं नए रूप में कर्मकांड को बढ़ावा दे रहे हैं।
यही वो घटना थी जिसने मुझे बाबा साहब और तथागत से दूरी
बढ़ाने को मजबूर किया।
मैंने
बहुत सोच विचार किया कि धर्म छोड़कर कौनसा रास्ता अपनाऊँ। बहुत बड़ी दिक्कत सामने खड़ी थी क्योंकि मुझे किसी भी धर्म की संपूर्ण जानकारी
नहीं थी,
और लकीर का फकीर मैं बन नहीं सकता था, जैसे कि हमारा पूरा समाज बना हुआ घूम रहा है।
फिर शुरू हुआ धर्म ग्रंथों का गहन अध्ययन।
मेरी बुद्धि मेरा साथ देती रही और मैंने धर्म शास्त्रों को
ही अपना शस्त्र बना लिया और बन गया धर्ममुक्त।
आस्तिकता,
नास्तिकता और मानवता तीनों विषयों पर वास्तविकता का चश्मा
लगाकर जब समाज को देखा तो मुझे एक रहस्यमयी दुनिया के दर्शन हुए।
जहाँ कथनी और करनी में इतना भेद है कि खुद को विद्वान समझने
वाले व्यक्ति भी अपने विचारों के साथ न्याय नहीं करते।
यही चश्मा आप किसी भी महापुरुष के व्यक्तित्व पर लगा दीजिए।
आपको उनकी नैतिकता और न्याय के दर्शन हो जाएंगे।
मैं ऐसा
समाज चाहता हूँ जो सत्य, प्रेम, मानवता के रास्ते पर चले।
जहाँ छल, कपट, द्वेष का कोई स्थान ना हो, सब एक ही सूत्र में समानता के साथ जाति व धर्म से मुक्त हों।
जहाँ स्त्री पर पुरुषवादी मानसिकता हावी ना हो।
जहाँ कर्मकांड और पाखंड, भूत और भविष्य, टोना और टोटका आने वाली पीढ़ियों को विरासत में ना प्राप्त
हों।
क्या आप
मेरे इस छोटे से काम को विस्तार देना चाहेंगे, जिससे
हमारा समाज अंधविश्वास, पाखंड, कर्मकांड, भेदभाव से मुक्त हो सके ?
― कश्मीर सिंह सागर
लेखक भारत में तर्कशील आन्दोलन से
जुड़े रहे हैं। उन्होंने धर्ममुक्त अभियान चलाकर अंधश्रद्धा, आडम्बर आदि पर काफी
कुछ लिखा है। उन्होंने मानवीयता, तर्कशीलता और वैज्ञानिक चिंतन के पक्ष में कार्य
करने को काफी महत्व दिया। हाल में ही उनका निधन (18 नवंबर,
2018) हो
गया है। लेकिन उनके द्वारा शुरू किया गया धर्ममुक्त अभियान जारी है। उसे अब शुभांशु
सिंह चौहान आगे बढ़ा रहे हैं।
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